शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

गीत : तुम मुझसे






तुम मुझसे बस शब्द और सुर ले पाये-

पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरे गीत-?

मुझको तो बस गीत सुनाना आता है,

होंठो पर संगीत सजाना आता है

गहरा रिश्ता है मेरा पीड़ाओं से-

फिर भी मुझको हास लुटाना आता है

तुम मुझको बस आह-कराहें दे पाये-

पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरे मीत-?

मैंने गीतों में अपनी वह प्यास पढ़ी है-

बरसों से जो प्यास उम्र के साथ चढी है

तृप्त कराने कोशिश जब जब भी हुई है-

तब-तब यह तो और उग्रतर हुई-बढ़ी है

तुम मुझको बस प्यासी तृष्णा दे पाये-

पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरी प्रीत -?

मैंने जीवन की बगिया में आंसू बोया है

मैंने जिसको चाहा है-बस उसको खोया है

पीड़ा से मेरी आँखें जब-जब भीगी हैं-

तब तब गले लिपट कर मुझसे, गीत भी रोया है।

तुम मुझको बस हार पुरानी दे पाये-

पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरी जीत -?

मुझे पता है- इन राहों में फूल नहीं हैं,

किंतु बताओ ! कहाँ जगत में शूल नहीं हैं-?

जब शूलों से यारी करना आवश्यक हो-

तब गीतों का साथ बनाना भूल नहीं है।

तुम मुझको बस चंद सलाहें दे पाये-

पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरी रीत -?

* * * * * * * * * *

5 टिप्‍पणियां:

  1. आनंद जी आपकी तरह समीक्षा तो हमे करनी आती नही मगर सचमुच एक बेहतरीन गीत के लिये ढेरों बधाईयाँ...

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  2. मुझे पता है- इन राहों में फूल नहीं हैं,
    किंतु बताओ ! कहाँ जगत में शूल नहीं हैं-?
    जब शूलों से यारी करना आवश्यक हो-
    तब गीतों का साथ बनाना भूल नहीं है।
    bahut khoobsurat rachna hai. padh kar aanand aaya,
    mere blog men aane ka shukriya .

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  3. बहुत ही सुन्दर रचना है । हृदय के अन्दर उतरती चली जाती है । आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं । मेरी अशेष शुभकामनायें ।

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना है । हृदय में उतरती चली जाती है । आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं । आपके लिये अशेष शुभकामनायें ।

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