सोमवार, 15 जून 2009

इन दिनों थोड़ी फुर्सत है तो कुछ पुराने कागजात खंगाल रहा हूँ। पुरानी ग़ज़लें और गीत और ......... बहुत कुछ अपनी स्मृतियों के साथ फिर से निकल-निकल कर आ रहे हैं। ........ (चंद तस्वीरे-बुतां, चंद हसीनों के खुतूत, बाद मरने के मिरे घर से ये सामां निकला।)
एक और ग़ज़ल भेज रहा हूँ। इस पर तारीख पड़ी है- 22-09-1991. आप सबकी प्रतिक्रया का इंतज़ार रहेगा.....

एक ग़ज़ल : बाद मुद्दत के .......

बाद मुद्दत के इक हंसी देखी।
एक मजलूम की खुशी देखी।
उनको देखा तो यूँ लगा मुझको-
जैसे बर-बह्र शाइरी देखी।
दिल के हाथों ही हम हुए मजबूर
हमने ऐसी भी बेबसी देखी।

है सितारा बुलंद किस्मत का-
उनकी आँखों में बेखुदी देखी।

नींद- तेरा बड़ा है शुकराना
ख्वाब में हमने आशिकी देखी।

यूँ हुआ इल्म मुक़म्मल अपना-
हमने जब प्यार-दोस्ती देखी।
* * * * * * * *

सोमवार, 8 जून 2009

"मंच" पर वज्रपात का दिन

आज का दिन "मंच" पर वज्रपात का दिन है। आज की सुबह ह्रदय द्रावक समाचार लाई है. एक सड़क दुर्घटना में मंच के लोकप्रिय कवि ओम प्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड सिंह गुज्जर का निधन हो गया और ओम व्यास तथा ज्ञानी बैरागी गंभीर रूप से घायल हुए हैं.


एक शोक सूचना और- वरिष्ठ रंग-कर्मी हबीब तनवीर का भोपाल में ८६ वर्ष की उम्र में निधन हो गया. रंगमंच की एक महत्वपूर्ण कठपुतली को जगत-नियंता ने वापस बुला लिया.हबीब तनवीर जी, आदित्य जी, नीरज पुरी जी, और लाड सिंह गुज्जर जी को श्रद्धांजलि और ओम व्यास तथा बैरागी जी शीघ्र स्वस्थ हों यही कामना.

एक ग़ज़ल : "गीत गाते रहे.........."

आज कुछ पुराने कागजात खंगालते वक्त एक पुरानी रचना मिली जिस पर तारीख पड़ी थी- १५ जनवरी १९९२। इसे पढ़ते हुए कुछ पुरानी स्मृतियाँ भी उछल-कूद कर गईं। इसे केवल मेरी प्रारम्भिक रचनाओं के रूप में देखें.

गीत गाते रहे गुनगुनाते रहे।

रात भर महफिलों को सजाते रहे।

सबने देखी हमारी हंसी और हम-

आंसुओं से स्वयं को छुपाते रहे।

सुर्ख फूलों के आँचल ये लिख जायेंगे-

हम बनाते रहे वो मिटाते रहे।

रेत पर नक्शे-पा छोड़ने की सज़ा

उम्र भर फासलों में ही पाते रहे।

सबने यारों पे भी शक किया है मगर-

हम रकीबों को कासिद बनाते रहे।

हमको आती है यारो! ये सुनकर हंसी-

"वो हमारे लिए दिल जलाते रहे। "

नीली आंखों के खंजर चुभे जब उन्हें-

दर्द में "कृष्ण" के गीत गाते रहे।

सोमवार, 1 जून 2009

ग्रीष्म सप्तक

भीषण गर्मी पड़ रही है ......... इस मौके पर सात दोहे प्रस्तुत हैं। ये सभी दोहे अपने आप में स्वतंत्र हैं किन्तु समेकित रूप में ये ग्रीष्म ऋतु के एक पूरे दिन का चित्रण करने का प्रयास हैं...... प्रयास की सफलता का मूल्यांकन आप करेंगे ना-??????
दोहे निकल पड़ा था भोर से पूरब का मजदूर।
दिन भर बोई धूप को लौटा थक कर चूर।

पिघले सोने सी कहीं बिखरी पीली धूप।
कहीं पेड़ की छाँव में इठलाता है रूप।

तपती धरती जल रही, उर वियोग की आग।
मेघा प्रियतम के बिना, व्यर्थ हुए सब राग।

झरते पत्ते कर रहे, आपस में यों बात-
जीवन का यह रूप भी, लिखा हमारे माथ।

क्षीणकाय निर्बल नदी, पडी रेत की सेज।
"आँचल में जल नहीं-" इस, पीडा से लबरेज़।

दोपहरी बोझिल हुई, शाम हुई निष्प्राण।
नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे वितान।

उजली-उजली रात के, अगणित तारों संग।
मंद पवन की क्रोड़ में, उपजे प्रणय-प्रसंग।

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