बुधवार, 29 दिसंबर 2010

राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़) में मुक्तिबोध रचना शिविर

राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़) में "प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान रायपुर के तत्वावधान में दिनांक १७ दिसंबर २०१० से २० दिसंबर २०१० तक आयोजित हुए चार दिवसीय "मुक्तिबोध रचना शिविर" में शामिल होने का अवसर मिला। यह कार्यक्रम वरिष्ठ कविश्री विश्वरंजन जी के मार्गदर्शन और उर्जावान रचनाकार भाई जयप्रकाश मानस और उनके प्रतिबद्ध सहयोगियों के अथक प्रयासों का जीवंत रूप था । इस समारोह की कुछ फोटो देखें।

















इस कार्यक्रम कि विस्तृत रिपोर्ट जल्दी ही ..........















रविवार, 5 सितंबर 2010

मेरी पहली लघुकथा, जिसे मैंने १९८५ की एक मूसलाधार बारिश भरी शाम में लिखा था.............
अनुत्तरित प्रश्न
संकोच से झुका सिर स्वीकृति में हिला और एक मजबूत बालदार हाथ ने पैंट की जेब से कुछ नोट निकाल कर सामने बैठी धूर्त व मक्कार आंखों के आगे कर दिए । शैतानी चमक के साथ आंखों ने उन नोटों को झपट कर अपने लड़खड़ाते पैरों को बाहर जाने का आदेश दे दिया ।

- दरवाजा चमरौधे सी आवाज करता बंद हुआ और कुछ क्षणों के बाद पुनः खुला - अपने पीछे एक पूर्ण युवा शरीर के अस्तित्व को विमुक्त करता हुआ - सा -
- शरीर के अन्दर आते ही दरवाज़ा अपनी आदत के अनुसार फिर से बंद हो गया..........

- शरीर मशीनी अंदाज़ में अनावृत्त हुआ तब तक सिर का संकोच भी पर्याप्त समाप्त हो चुका था । उसने शरीर को लोलुप दृष्टि से घूरते हुए बातें करना प्रारंभ किया ।

‘‘तुम्हारा नाम - ?’’
‘‘नाम जानकर क्या करोगे ? जल्दी काम निबटाओ जिसके लिए जेब हल्की की है ।’’

‘‘.................... । ’’ कुछ क्षणों का सन्नाटा -

‘‘ तुम यह काम छोड़ क्यों नहीं देतीं - ?’’
‘‘तो क्या होगा ? पेट फिर भी रोटी मांगेगा । फिर यहां नहीं तो कहीं और ...... । ’’
‘‘शादी ............ ?’’
‘‘किससे ............ ?’’
‘‘मुझसे । ’’ सिर पूरे आत्मविश्वास से बोला ।
- अनावृत्त जिस्म का रोयां रोयां व्यंग्य से खिलखिला उठा - ‘‘ शादी तुम करोगे किससे- ? इससे .. ? इससे .... ? या इससे ....... ?’’ जिस्म ने जैसे अपने सारे अंगों की नुमाइश लगा दी ।

- सिर हत्प्रभ रह गया । जिस्म ने खिलखिलाते हुए ही सिर को अपनी ओर खींच लिया और बैड-स्विच आफ कर दिया ।

- सरसराहटें .......... ।
- गुरगुराहटें ........... ।
- गरमाहटें .............. ।

- सन्नाटे में गूंजते झींगुरों की आवाज़-सी सांसें ............ ।
- आवाज़ें दर आवाज़ें -

- सिर चलने को ही था तभी जिस्म से ठंडी आवाज़ उभरी- ‘‘शादी करोगे मुझसे - ?’’

- सिर थम गया । उसके सामने पूरा समाज, परिवार, मित्रमंडली घूम गई और इन सबके बोझ से वह धीरे-धीरे झुकता गया । अचानक वह बिना कुछ बोले बाहर की ओर तेजी से बढ़ गया ।

....... उसका पीछा कर रही है जिस्म की तीखी धारदार खिलखिलाहट - अपने अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर पाने के लिए ।

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सोमवार, 21 जून 2010

गीत

गीत : तुम बिन ............

तुम बिन जग से मेले रीते ।
सूने पथ, अंधियारी गलियां, हालाहल सा पीते।

आशाएँ बस खेल खिलातीं,
सपनों की दुनिया दिखलातीं,
और प्रतीक्षा अंत न पाती -
उजड़ा-उजड़ा इक-इक दिन भी, बरस-बरस सा बीते ।

बालू के घर ज्यों ढह जाते,
शंख-सीपियां बह-बह आते,
सतत कहानी कहते जाते -
जीवन भर हम रहे हारते, आंसू ही बस जीते ।

कैसी है इस मन की माया,
जिसने बस तृष्णा को गाया,
पर दुनिया ने ये सिखलाया -
बोलो । सबको मिल पाते हैं, साथ कहां मनचीते ?
* * * * * * * * *

रविवार, 20 जून 2010

गीत प्रेम का...........

काफी समय के बाद फिर हाज़िर हूँ एक पुराना गीत लेकर..........

एक अच्छी खबर ये है कि मेरे परिचय के दायरे में एक उत्साही युवा श्री राजेश कुमार सोनी शामिल हुए हैं। उन्होंने मेरे सारे लेखन को टाइप करने का बीड़ा उठाया है..... इसके लिए उन्होंने काग़ज़ के छोटे-छोटे टुकड़ों को तक इकट्ठा किया है और उसे टाइप कर रहे हैं...... वे कृतिदेव में टाइप कर रहे हैं जिसे मैं यूनिकोड में परिवर्तित करके आप तक पहुंचाउंगा.......

तो लीजिये प्रस्तुत है ये गीत जो सन १९८९ की किसी धूल भरी गर्मी की ढलती शाम में मेरे भीतर कहीं करवटें लेता हुआ जागा था................

गीत प्रेम का...........
गीत प्रेम का यौवन का अब-
मुझसे नहीं लिखा जाता है।

पीडाओं का बोझा ढोते -
ढोते देह दोहरी हुई है ।
संत्रासों की तेज धूप में
खोती जाती प्यास मुई है ।
दूर-दूर से छिप, कोई क्यों -
अपनी झलक दिखा जाता है ?

कभी उमड़ती अलस भाव से -
कभी क्षितिज में खो जाती हैं ।
कुछ सुधियां ऐसी भी हैं जो-
शांत भाव से सो जाती हैं ।
भूला-भटका मेघ बरस कर,
भाषा नई सिखा जाता है ।