बुधवार, 25 जून 2014

हिन्दी में ज्ञानात्मक साहित्य : तीन किताबें, तीन दृष्टियाँ, तीन आयाम

हिन्दी में ज्ञानात्मक साहित्य : तीन किताबें, तीन दृष्टियाँ, तीन आयाम
(डॉ विपिन चतुर्वेदी की दो किताबें “ऊतकी परिचय” तथा “मानव शरीर की अस्थियाँ”
और बालेंदु शर्मा दाधीच की किताब “तकनीकी सुलझनें” पर केन्द्रित)
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       किसी सम्पूर्ण प्रभुतासंपन्न देश की अस्मिता के चार पहलू होते हैं : उस देश का राष्ट्रध्वज, उस देश का राष्ट्र गीत, उस देश का राष्ट्रीय प्रतीक (राजमुद्रा, राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय पक्षी, आदि) और उस देश की राजभाषा । प्रथम तीन पहलू स्थूल रूप में होते हैं, देश के भीतर उनका बहुत महत्व के साथ प्रयोग होता है और विदेशों में विशेष अवसरों पर देश की उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिए उनका सीमित उपयोग होता है । किन्तु चौथा पहलू, किसी देश की राजभाषा; सूक्ष्म रूप  में उस पूरे देश में किसी चिरंतन स्रोतस्विनी सी प्रवाहित रह कर सारे देश को जहां एकता के सूत्र में पिरोती है वहीं सारे देश की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम भी होती है । विदेशों में भी विभिन्न माध्यमों से किसी देश की राजभाषा ही अपने देश का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करती है । राजभाषा में रचित साहित्य सारी दुनिया में उस देश का गौरव गान मुखर स्वर में प्रसारित करता है ।   
       भारतवर्ष की स्वाधीनता के बाद संविधान निर्माण के दौरान बहुत लंबे वैचारिक विमर्श और कड़े संघर्ष के पश्चात 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और संविधान के अनुच्छेद 343 में तदाशय के स्पष्ट निर्देश दिये गए । हिन्दी भारतवर्ष के सर्वाधिक भूभाग में और सर्वाधिक जनसंख्या के द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, देश के हिंदीतर क्षेत्रों में भी हिन्दी कार्यसाधक भाषा है, इसके साथ ही स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी की अहम भूमिका होने और इस अकेली भाषा की लिपि और व्याकरण भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की कसौटी पर खरे उतरने के कारण हिन्दी को संस्कृत, उर्दू और अँग्रेजी की अपेक्षा अधिक तरजीह दी गई । राजभाषा के महत्व को समझते हुए संविधान में अनुच्छेद 120, अनुच्छेद 210 और अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 तक कुल 11 अनुच्छेदों में राजभाषा के सर्वांगीण उन्नयन और विकास के लिए स्पष्ट प्रावधान किए गए हैं ।
       किसी भाषा की सामर्थ्य उसमें रचे गए साहित्य से की जाती है । साहित्य दो प्रकार का होता है- पहला भावात्मक साहित्य, जिसके अंतर्गत कविता, कहानी, उपन्यास आदि भावात्मक विधाओं में रचित साहित्य आता है । हिन्दी के पास प्रचुर मात्रा में भावात्मक साहित्य है और इसके विकास की स्पष्ट धारा भी है । वैश्विक वाङमय में हिन्दी के इस भावात्मक साहित्य का सम्मानित स्थान है जो विश्व पटल पर भारतीय मनीषा को पूरे सामर्थ्य के साथ प्रतिष्ठापित करता है । साहित्य का दूसरा प्रकार होता है- ज्ञानात्मक साहित्य । इसके अंतर्गत ज्ञान के विविध क्षेत्रों में रचा गया ऐसा साहित्य आता है जो ज्ञानार्जन के लिए उपयोग में आता है । यह ज्ञानात्मक साहित्य प्रमुख रूप से शिक्षण कार्यों में प्रयुक्त होता है । यह निर्विवाद सत्य है कि शिक्षा का स्तर तभी ऊंचा उठ सकता है जब शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो ।
       ज्ञानात्मक साहित्य के सृजन के लिए आवश्यक है कि संबन्धित विषय की पूरी मानकीकृत और पारिभाषिक शब्दावली हमारे पास हो, वह शब्दावली जनसामान्य के द्वारा प्रयोग किए जाने के योग्य हो, शब्दों में प्रगुणन की सहज प्रवृत्ति हो और उसमें अर्थपरक स्पष्टता हो । हिन्दी भाषा के व्यावहारिक स्वरूप के मानकीकरण के लिए पहली बार उल्लेखनीय कार्य आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (15 मई 1864-21 दिसंबर 1938) ने किया । सन 1903 में वे रेलवे की नौकरी छोडकर हिन्दी की पत्रिका “सरस्वती” के संपादक बने और सन 1920 तक उन्होने ये कार्य किया । इस दौरान उन्होने नए शब्दों, अभिव्यक्तियों और संकल्पनाओं को अपनी पत्रिका के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाया और इस प्रकार हिन्दी के प्रारम्भिक दिनों में उसकी संरचना, व्याकरण, शब्द-भंडार और ज्ञानात्मक कोशों को समृद्ध किया । सन 1933 में अपने विराट लोक अभिनंदन समारोह को संबोधित करते हुए अपने आत्मनिवेदन में उन्होने अपने भाषा संबंधी विचारों को इन शब्दों में व्यक्त किया – “.......... मैं संशोधन द्वारा लेखों की भाषा अधिक संख्यक पाठकों की समझ में आने लायक कर देता । यह न देखता कि यह शब्द अरबी का है या फारसी का या तुर्की का । देखता सिर्फ यह कि इस शब्द, वाक्य या लेख का आशय अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नहीं ।“ किसी भी भाषा के शब्द भंडार को समृद्ध करने के लिए यही सर्वश्रेष्ठ और सर्वमान्य तरीका है । ऑक्सफोर्ड, केंब्रिज, आदि शब्दकोशों के नए संस्करणों में ऐसे शब्दों को बहुत सम्मान और आत्मीयता के साथ शामिल किया जाता है जो अँग्रेजीदाँ समाज में घुलमिल चुके होते हैं । इनको शामिल करने में उन शब्दों की मूल भाषा आदि कोई रुकावट नहीं बनती । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की भाषा के विकास संबंधी व्यावहारिक अवधारणाएँ जन सामान्य के मनो-मस्तिष्क में पैठ करती गईं और हिन्दी की सामर्थ्य पर अविश्वास करने वाले महापंडितों ने भी उसके महत्व को स्वीकार किया । वर्तमान हिन्दी की संरचना वही है जो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने निर्धारित की थी । उनके रचे हुए और ग्रहीत किए हुए बहुत से शब्द आज भी प्रचलन में हैं ।
       भाषा का मानकीकरण उसके सुगठित व्याकरण पर निर्भर करता है । हिन्दी का पहला व्याकरण आचार्य कामता प्रसाद गुरु (1875-16 नवंबर 1947) ने लिखा था । यह व्याकरण नागरी प्रचारिणी सभा काशी के मुखपत्र में सान 1917 से सन 1919 तक धारावाहिक प्रकाशित होता रहा और सन 1920 में हिन्दी व्याकरण शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ । यह हिन्दी का सबसे बड़ा और सबसे प्रामाणिक व्याकरण है जो आज भी हिन्दी का व्याकरणिक दृष्टि से पथ-प्रदर्शन करता है । इसीलिए आचार्य कामता प्रसाद गुरु हिन्दी के पाणिनि कहे जाते हैं । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पश्चात गुरुजी ने सन 1920 में सरस्वती का सम्पादन भार संभाला और द्विवेदी जी की कार्य को ऊँचाइयाँ प्रदान कीं ।
       स्वतन्त्रता के पश्चात पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण का सबसे पहला, सबसे महत्वपूर्ण और सर्वमान्य कार्य महान भाषाविद, कोशकार और भारतीय संकृति के प्रखर अध्येता डॉ रघुवीर (30 दिसंबर 1902-14 मई 1963) ने किया था । लगभग पाँच साल के छोटे से कार्यकाल में उन्होने हिन्दी में छह लाख से अधिक शब्द निर्मित करके हिन्दी के शब्द भंडार को समृद्ध किया । उनके बनाए हुए लगभग 80 प्रतिशत शब्द आज हमारे दैनिक जीवन में, प्रशासनिक विधिक, आर्थिक, सांविधानिक, लेखा, बैंकिंग, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहित अनेक क्षेत्रों में घुल मिल चुके हैं और बहुतायत से प्रयोग किए जा रहे हैं । शब्द निर्माण के लिए उन्होने संस्कृत की मूल धातुओं में छुपे अर्थों और शक्तियों को जैसे पुनर्जीवित किया और संस्कृत के ही उपसर्गों और प्रत्ययों का उपयोग कर के नए शब्द गढ़े, उन शब्दों को अर्थ और संस्कार दिये । शब्द निर्माण की यह विशुद्ध वैज्ञानिक प्रक्रिया है । हालांकि डॉ रघुवीर के संस्कृत के प्रति प्रबल आग्रह के कारण दैनिक उपयोग के कुछ अहिंदी शब्दों के बनाए हुए हिन्दी शब्द उपहास के पात्र बने लेकिन उन गिने चुने शब्दों के कारण डॉ रघुवीर के योगदान का महत्व कम नहीं हो जाता । आज भी शब्दावली निर्माण के क्षेत्र में डॉ रघुवीर के सिद्धांतों का अनुसरण किया जाता है । उनके अतिरिक्त डॉ भोलानाथ तिवारी, बाबूराम सक्सेना, आचार्य रामचन्द्र वर्मा, आचार्य किशोरी दास वाजपेयी, डॉ हरदेव बाहरी, हरी बाबू कंसल, विमलेश कांति वर्मा, बद्रीनाथ कपूर, प्रोफेसर रामप्रकाश सक्सेना, प्रोफेसर महावीर सरन जैन आदि सहित अनेक विद्वानों ने अपने अपने तरीके से हिन्दी की शब्द सामर्थ्य, अभिव्यक्ति और ज्ञानात्मक विकास में अपना योगदान दिया है । यह शृंखला अभी थमी नहीं है और अभी भी नई पीढ़ी के विद्वान प्रकारांतर से अपना रचनात्मक योगदान दे रहे हैं ।
       लेकिन इन वैयक्तिक प्रयासों की सीमाएं थीं; इनमें एकरूपता भी नहीं थी और इसलिए इनका सर्वमान्य मानकीकरण कर पाना संभव नहीं था । इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 344 (6) के अंतर्गत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए भारतवर्ष के माननीय राष्ट्रपति ने 27 अप्रेल 1960 को एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया था जिसके अंतर्गत शब्दावली निर्माण, प्रशासनिक, कार्य-विधि और ज्ञानात्मक साहित्य का हिन्दी में प्रामाणिक अनुवाद कराना, हिन्दी का प्रचार, पसार तथा विकास के लिए आवश्यक कदम उठाने और हिन्दी के प्रशिक्षण संबंधी निर्देश दिए गए थे । इस आदेश के अनुपालन में सन 1960 में “केंद्रीय हिन्दी निदेशालय” का, सन 1961 में “वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के स्थायी आयोग” का और सन 1971 में “केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो” गठन किया गया । इनके साथ ही अनेक संस्थाएं और समितियां भी बनाई गई हैं जो हिन्दी के ज्ञानात्मक साहित्य की श्रीवृद्धि करने में निरंतर सक्रिय हैं ।
       भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय (माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा विभाग) के अंतर्गत कार्यरत वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग भारतवर्ष के संविधान के अनुच्छेद 351 में वर्णित हिन्दी भाषा के उन्नयन और विकास के लिए दिशा निर्देशों के अनुसरण में विभिन्न विषयों की अँग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं की शब्दावलियों के लिए हिन्दी में पारिभाषिक शब्द गढ़ने का महत्वपूर्ण कार्य सन 1961 में अपनी स्थापना से ले कर अब तक निरंतर कर रहा है । आयोग के द्वारा ज्ञान के सभी क्षेत्रों की मानक शब्दावलियाँ तैयार कर ली गई हैं और उनको निरंतर अद्यतित किया जा रहा है । इन शब्दावलियों के शब्दों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी सरल वर्तनी और स्पष्ट व सीमित अर्थवत्ता है जिसके कारण भाषा का सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी जब किसी अनजान विषय के शब्द को पढ़ता है तो वह उसकी अवधारणा का अनुमान लगा लेता है । जैसे विज्ञान विषय में अँग्रेजी का एक शब्द है “बैरोमीटर”, इस शब्द से अँग्रेजी जानने वाला भी इसकी अवधारणा का अनुमान लगा पाने में कठिनाई अनुभव करेगा किन्तु इसके लिए हिन्दी में बनाए गए शब्द “वायु दाब मापी” से सामान्य हिन्दी जानने वाला कोई भी व्यक्ति इस उपकरण के बारे में, इसके कार्य और उपयोग के बारे में सटीक अनुमान लगा लेगा । हिन्दी माध्यम से ज्ञान के विस्तार और विकास का यह अनंत क्रम निरंतर जारी है ।
       शब्दावलियों के निर्माण और विकास के साथ साथ वैज्ञानिक तथा शब्दावली आयोग ने विश्वविद्यालय स्तरीय ग्रंथ निर्माण योजना का सूत्रपात किया है जिसके अंतर्गत हिन्दी ग्रंथ अकादमी प्रभाग, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा चिकित्सा साहित्य की अनेक किताबें  हिन्दी में तैयार कराई गई हैं । इनमें ख्यातिलब्ध लेखक-चिकित्सक डॉ (कर्नल) विपिन चतुर्वेदी की दो किताबें  ऊतकी परिचय और “मानव शरीर की अस्थियाँ शामिल हैं । इन दोनों किताबों  के शीर्षक से ही सामान्य हिन्दी जानने वाले पाठक को किताबों  की विषयवस्तु की जानकारी हो जाती है । इन किताबों को लेखक ने “उन भाग्यहीन छात्रों को” समर्पित किया है जो “अँग्रेजी के भार के कारण मेडिकल की पढ़ाई के योग्य नहीं समझे गए” और साथ ही यह आशा भी व्यक्त की है कि “उनकी अगली पीढ़ी को यह पीड़ा न झेलनी पड़े ।“ समर्पण के इन शब्दों में लेखक की वेदना और सहानुभूति झलकती है । 
       पहली किताब “ऊतकी परिचय चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के लिए सबसे पहले और सबसे अनिवार्य विषय “कोशिका” के बारे में है । इस विषय पर हिन्दी में यह पहली किताब है । यह किताब दो भागों में है पहला भाग “सामान्य ऊतकी” है जिसमें विभिन्न प्रकार के आधारभूत ऊतकों का परिचय दिया गया है और दूसरे भाग “विशिष्ट ऊतकी” में शरीर के विभिन्न अवयवों के ऊतकों का सचित्र विस्तृत वर्णन है । यह पूरी किताब 18 अध्यायों में विभक्त है । पाठकों की सुविधा के लिए इसमें हिन्दी-अँग्रेजी शब्दावली दी गई है जिससे पाठक सुविधानुसार अँग्रेजी के समानार्थी शब्द खोजकर अँग्रेजी के ग्रन्थों को संदर्भित कर सकते हैं । किताब की भाषा सरल और बोधगम्य है । इसमें वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के द्वारा निर्मित मानक शब्दों का प्रयोग किया गया है जिससे आयोग द्वारा निर्मित मानक शब्दावली व्यावहारिक रूप में जन साधारण तक पहुँचती है । कुल मिला कर यह किताब चिकित्सा शास्त्र के छात्रों के लिए तो उपयोगी है ही किन्तु ज्ञान पिपासु सामान्य पाठकों को भी रोचक और ज्ञानवर्धक लगेगी ।
       डॉ विपिन चतुर्वेदी की दूसरी किताब “मानव शरीर की अस्थियाँ” है जिसके नाम से ही ज्ञात हो जाता है कि ये किताब मानव शरीर की हड्डियों के अध्ययन का अवसर देती है । मानव शरीर की रचना का आधार अस्थियाँ होती हैं । इनसे ही शरीर की पूरी संरचना बनती है । अस्थियों के जोड़ से विभिन्न प्रकार की संधियाँ बनती हैं जिनसे शरीर को गति मिलती है । अनेक अस्थियों के नाम पर उनसे जुड़ी मांसपेशियों, रक्त वाहिकाओं और तंत्रिकाओं के नाम होते हैं । इस प्रकार चिकित्सा के छात्रों के लिए अस्थियों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । यह किताब इस अनिवार्यता की पूर्ति करती है । इसमें हिन्दी के पारिभाषिक शब्दों के साथ उनके अँग्रेजी पर्याय कोष्ठक में दिये गए हैं जिससे अँग्रेजी के संदर्भ ग्रन्थों को संदर्भित करने में बहुत सहायता मिलती है । डॉ विपिन चतुर्वेदी शरीर रचना विज्ञान के प्राध्यापक हैं और इस विषय पर उनकी अच्छी पकड़ है जिसे उन्होने इस किताब में साबित भी किया है ।
       इन दोनों किताबों में हिन्दी की मानक शब्दावली का प्रयोग किया गया है और साथ ही अँग्रेजी के शब्द कोष्ठक में दिये गए हैं । इससे हिन्दी और अँग्रेजी की शब्दावलियों के बीच तुलना करने का अवसर बनता है । कोई भी सामान्य पाठक इस नतीजे पर बहुत जल्दी पहुँच सकता है कि अँग्रेजी के शब्द अर्थ, वर्तनी और उच्चारण की दृष्टि से हिन्दी के शब्दों की अपेक्षा बहुत कठिन हैं । कुछ शब्दों के उदाहरण दृष्टव्य हैं : कर्ण गुहा (auditory meatus); अश्रु अस्थि (lacrimal bone); ऊर्ध्व हनु (maxilla); अधोहनु (mandiable); मेरुदंड (vertebral column) आदि । इनको देख कर ही स्पष्ट परिलक्षित होता है कि हिन्दी के शब्द अपना अर्थ स्वयं स्पष्ट कर रहे हैं और अँग्रेजी के शब्दों से न तो अर्थ स्पष्ट होता है और न ही उनकी वर्तनी और उच्चारण सरल हैं । हिन्दी को कठिन मानने वालों को पूर्वाग्रह छोड़कर दोनों भाषाओं के शब्दों की यह तुलना देखना चाहिए ।
       दोनों किताबों के अंत में विषय से संबन्धित हिन्दी-अँग्रेजी शब्दावली दी गई है । यह शब्दावली अकारादि क्रम में नहीं है जिससे ये असुविधाजनक है । अगले संस्करण में इस त्रुटि का परिष्कार होना अपेक्षित है । दोनों किताबों का मूल्य उनकी उपयोगिता के हिसाब से कम ही है । यह बात बड़ी पीड़ा दायक है कि इन महत्वपूर्ण किताबों की केवल 500-500 प्रतियाँ ही मुद्रित हुई हैं । हिन्दी में सृजित ज्ञानात्मक साहित्य को अनदेखा करने की व्यवस्थित कुचेष्टाओं के चलते इन प्रतियों की अधिकांश संख्या प्रकाशक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के गोदाम में ही रखी हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए । हमारे देश में 500 से अधिक तो चिकित्सा महाविद्यालय होंगे और हर साल कम से कम 50 हज़ार डॉक्टर बनते होंगे किन्तु हिन्दी में लिखी गई अपने विषय की इन पहली किताबों को अनदेखा किए जाने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता । बहरहाल, ये किताबें  उन उद्देश्यों की पूर्ति करती हैं जिनके लिए इनको लिखा गया है । अब यह समाज का दायित्व है कि वह लेखक-प्रकाशक की भावनाओं, प्रयासों और परिश्रम को कितना मान देता है -? और साथ ही उसके भीतर अपनी भाषा और अपनी अभिव्यक्ति के उन्नयन के लिए कितनी ललक, कितना उत्साह है ?
       डॉ विपिन चतुर्वेदी की किताबों से हटकर बालेंदु शर्मा दाधीच की किताब “तकनीकी सुलझनें” है । बालेंदु शर्मा दाधीच सूचना प्रौद्योगिकी और इंटरनेट मीडिया के क्षेत्र में सितारा हैसियत रखते हैं । वे स्वयं को भाषायी पृष्ठभूमि जनित प्रौद्योगिकीय वंचितता और आंकिक विभाजन जैसी अन्यायपूर्ण स्थितियों के विरुद्ध जारी आंदोलन का स्वयंसेवक मानते हैं । यह एक कड़वा सच है कि भारत में तकनीकी शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी होने के कारण बहुत से प्रतिभाशाली छात्र पढ़ नहीं सके और समाज  उनकी मेधा से वंचित रह गया । डॉ विपिन चतुर्वेदी की भांति बालेंदु शर्मा दाधीच के हृदय में भी ऐसे ही वंचित रह गए लोगों के प्रति सहानुभूति है और वे इस परिस्थिति के विरुद्ध अपना पूर्ण रचनात्मक योगदान दे रहे हैं । वे अत्याधुनिक संचार और सूचना प्रौद्योगिकी पर देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिख रहे हैं । उन्होने अनेक निःशुल्क हिन्दी सोफ्टवेयरों का विकास करके उन्हें जनसाधारण के लिए उपलब्ध कराया है । उनके महत्वपूर्ण लेखों के संकलन की यह किताब कई अर्थों में भिन्न है । पहली बात तो यही कि इस किताब का प्रकाशन उनके निजी प्रयासों का प्रतिफलन है । कम्प्युटर, इंटरनेट, बैंकिंग, स्मार्टफोन, चोरी गए लैपटॉप की तलाश, आदि जैसे रोज़मर्रा के तीस विषयों पर आम पाठक को उसकी ही बोलचाल की साधारण भाषा में जानकारी उपलब्ध कराती है ।
       आज के समय में इंटरनेट हर घर की आम ज़रूरत बन चुका है । इंटरनेट के द्वारा जहां एक ओर सारी दुनिया का ज्ञान और सुविधाएं सिमट कर हमारे पास आ गईं है वहीं कई तरह की नई नई समस्याओं ने भी जकड़ लिया है । घर पर अभिभावकों की अनुपस्थिति में कच्ची उम्र के बच्चे इंटरनेट पर सहज उपलब्ध अश्लील वेबसाईटें देख कर बिगड़ रहे हैं । यह भी संभव है कि किसी के ईमेल अकाउंट को कोई चोरी छिपे खोलकर उसे परेशानी में डाल दे या खुफिया एजेंसियां किसी के अकाउंट को हैक करके उसमें से व्यक्तिगत जानकारियाँ चुरा कर उनका दुरुपयोग कर सकती हैं । गुमनाम या अज्ञात नाम से आया धोखे या धमकी आदि का ईमेल किसी भी व्यक्ति की नींद उड़ा देने के लिए पर्याप्त है । क्रेडिट कार्ड का क्लोन बना कर उसका दुरुपयोग होना आम बात हो गई है । किसी भी तरह के साइबर क्राइम का शिकार होने के बाद कोई भी व्यक्ति सिर पीटने के अलावा कुछ नहीं कर पाता । तकनीकी सुलझनें” में ऐसी ही समस्याओं पर चिंता प्रकट करते हुए उन के सरल व सटीक समाधान सुझाए गए हैं । इनके अतिरिक्त पेन ड्राइव के स्थान पर गूगल ड्राइव का इस्तेमाल, गूगल में खोज करने का सही तरीका, इंटरनेट पर जायज़ तरीकों से धन कमाने के तरीके, अपने इनबॉक्स में कोई बहुत पुराना मेल तलाश करने का तरीका, इंटरनेट का उपयोग करके निःशुल्क विडियो कॉल करने का तरीका, टेबलेट और स्मार्टफोन के एप्स को विंडोज़ कम्प्युटर पर चलाने के तरीके, कम्प्युटर से फ़ैक्स भेजने और प्राप्त करने का तरीका, कम्प्युटर को रिमाइंडर की तरह उपयोग करने का तरीका, डाऊनलोड करते समय होने वाली समस्याओं का समाधान, पुराने सोफ्टवेयरों को नए ओपेरेटिंग सिस्टम में चलाने का तरीका, कहीं से भी अपने कम्प्युटर को एक्सेस करने का तरीका, चोरी गए या खोए लेपटाप का पता लगाने का तरीका, धीमे पड़ गए कम्प्युटर को  खोई हुई या डिलीट हुई फाइल को फिर से रिकवर करने का तरीका, कम्प्युटर को वाइरस से मुक्त रखने के लिए निःशुल्क एंटी-वाइरस इंस्टाल करने का तरीका और अपने टेलीविज़न सेट को कम्प्युटर का मॉनिटर बनाने का तरीका बहुत रोचक और सामान्य भाषा में बताया गया है । घर में एक से अधिक कम्प्युटर होने पर उनका छोटा सा नेटवर्क बनाने की उपयोगिता और उसको बनाने की विधि को बहुत विस्तार से समझाया गया है । आजकल सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक बहुत प्रचलन में है । फेसबुक के अकाउंट में भी असामाजिक तत्व घुसपैठ करके व्यक्तिगत और  गोपनीय आंकड़े चुरा लेते हैं और उनका दुरुपयोग करते हैं । ऐसी स्थितियों से बचने के उपाय भी इस किताब में दिये गए हैं । कम्प्युटर खराब होने पर मेकेनिक को बुलाने से पहले की जाने वाली जांच, सस्ते दामों में मिलने वाले जेनुइन सोफ्टवेयरों की प्रामाणिक जानकारी से इस किताब की उपादेयता बढ़ गई है । अपनी सहजता और उपयोगिता के कारण यह किताब अपने ध्येय वाक्य ”रहस्यावरन से मुक्त : सरल, सार्थक, सुरक्षितऔर लाभप्रद कम्प्यूटिंग” को चरितार्थ करती है । कुल मिला कर कम्प्युटर, इंटरनेट, लेपटाप, टेबलेट, एटीएम, क्रेडिट कार्ड, स्मार्ट फोन आदि जैसी आधुनिक सुविधाओं और तकनीकों का उपयोग करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह किताब अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए और इसे अपने संग्रह में रखना चाहिए । इस पुस्तक का ई-बुक संस्करण भी उपलब्ध है जिसे वैबसाइट http://www.eprakashak.com से प्राप्त किया जा सकता है ।  
       डॉ विपिन चतुर्वेदी की दोनों किताबें और बालेंदु शर्मा दाधीच की किताब हिन्दी के ज्ञानात्मक साहित्य को तीन नई दृष्टियाँ और तीन नए आयाम देती हैं । दोनों लेखकों की भाषा की तुलना करने पर हम पाते हैं कि डॉ चतुर्वेदी की किताबों की भाषा शास्त्रीय, व्याकरण सम्मत, मानक और इसी कारण कुछ क्लिष्ट सी लगती है जबकि बालेंदु शर्मा दाधीच की किताब में आम बोलचाल की ऐसी भाषा प्रयोग की गई है जिसमें अँग्रेजी के उन शब्दों की बहुतायत है जो विषयवस्तु के संदर्भ में जनमानस में गहरी पैठ बना चुके हैं । उन्होने पारिभाषिक शब्दावली पर अधिक ज़ोर नहीं दिया है । इससे उनकी भाषा बोझिल नहीं हुई और उसमें सहज प्रवाह बना रहा । वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग भी यदि ज्ञान के नए क्षेत्रों में विकसित हो रही अवधारणाओं के लिए नए शब्दों के गढ़ने की अनिवार्यता को समाप्त कर, प्रचलित शब्दों की वर्तनी, रूप आदि का मानकीकरण करके उन्हें हिन्दी के संस्कार देने का काम करे तो हिन्दी का शब्द भंडार तेज़ी से बढ़ेगा और ज्ञानात्मक साहित्य का सृजन भी तेज़ी से होगा ।  
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कृति : “ऊतकी परिचय”
लेखक : डॉ विपिन चतुर्वेदी
प्रकाशक : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
आईएसबीएन : 978-81-89989-29-3
मूल्य : 230 रु.
कृति : “मानव शरीर की अस्थियाँ”
लेखक : डॉ विपिन चतुर्वेदी
प्रकाशक : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
आईएसबीएन : 978-93-82175-00-1
मूल्य : 310 रु.
कृति : “तकनीकी सुलझनें”
लेखक : बालेंदु शर्मा दाधीच
प्रकाशक : ईप्रकाशक.कॉम,
504 पार्क रॉयल, जीएच-80,
सैक्टर-56, गुड़गाँव पिन-122011
मूल्य : 235 रु. 

समीक्षक : आनंदकृष्ण
IV/2, अरेरा टेलीफ़ोन एक्सचेंज परिसर
                                                          अरेरा हिल्स, भोपाल (म. प्र.), पिन : 462001
मोबाइल : 9425800818
ई-मेल : aanandkrishan@gmail.com
ब्लॉग : hindi-nikash.blogspot.com

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रचनाकार: पुस्तक समीक्षा : हिन्दी में ज्ञानात्मक साहित्य : तीन किताबें, तीन दृष्टियाँ, तीन आयाम

रचनाकार: पुस्तक समीक्षा : हिन्दी में ज्ञानात्मक साहित्य : तीन किताबें, तीन दृष्टियाँ, तीन आयाम

रविवार, 27 अप्रैल 2014

समीक्षा आलेख (10 अप्रेल 2014)




अन्तर्मन की गंगा यमुना के अजस्र प्रवाह का शाब्दिक प्रतिबिम्बन :
(प्रतिभा तिवारी के कविता संग्रह “अन्तर्मन की गंगा यमुना” पर केन्द्रित)
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अनुभूतियाँ प्रत्येक जीवंत और संवेदनशील व्यक्ति की संपत्ति होती हैं और जब इन अनुभूतियों के साथ दैवीय चेतना का समन्वय होता है तब कविता जन्म लेती है । यहाँ दैवीय चेतना का अर्थ उस चेतना से है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है और जिसमें विवेक, विश्लेषण-क्षमता और दृष्टा होने की समझ विद्यमान होती है । इस प्रकार कविता वैयक्तिक अनुभूतियों और दैवीय चेतना के संगम से उत्पन्न अनुगूँज है । 

      कविता लिखी या कही नहीं जाती, बल्कि उसका अवतरण होता है; वह नाज़िल होती है । रचनाकार अपने सर्वाधिक सक्रिय, और ऊर्जावान क्षणों में इस अवतरित हो रही; नाज़िल हो रही दैवीय चेतना से सम्पन्न ऊर्जा को ग्रहण करके उसे शब्दों में बांध कर उसे लौकिक और सर्वकालिक रूप प्रदान करता है । इस दृष्टि से कविता जीवन के समग्र स्वरूपों, सरोकारों और जिजीविषाओं का व्यापक और प्रामाणिक दस्तावेज़ होती है और रचनाकार इस अर्थ में एक ऐसा दृष्टा होता है जो समय को, उसके वर्तमान और भविष्य को, सटीक तरीके से विश्लेषित-व्याख्यायित करता है ।

      समकालीन समय में जहां एक ओर सामाजिक, आर्थिक, वैयक्तिक और यहाँ तक कि बौद्धिक संत्रास घनीभूत होते जा रहे हैं, अनास्था और अविश्वास के घने अंधेरे दौर में तब एक सुरमई उजास की धुंधली सी किरण कविता में दिखाई देती है । कविता अपनी दिव्य चेतना से मनुष्य को अपने होने की आश्वस्ति देती है और साथ ही सुबह होने का भरोसा भी दिलाती है । इसी आश्वस्ति की शृंखला की अगली कड़ी प्रतिभा तिवारी का कविता संग्रह “अन्तर्मन की गंगा-यमुना” है ।

      कविता संग्रह का शीर्षक “अन्तर्मन की गंगा-यमुना” सहज ही ध्यान आकर्षित करता है । गंगा धवलता की प्रतीक है और यमुना श्यामलता की । ये दोनों अपने अपने स्थानों पर तो महत्वपूर्ण हैं ही किन्तु जहां मिल जाती हैं उस स्थान प्रयाग को “तीर्थराज” बना देती हैं । ज़रा कल्पना कीजिये कि यदि प्रयाग में गंगा न होती, या यमुना न होती तो तो क्या उसे तीर्थराज का सम्मान मिलता-? प्रयाग को सिर्फ गंगा या यमुना ने नहीं बल्कि इनके मिलन ने; या यों कहिए कि इनके संतुलित मिलन ने तीर्थराज बनाया । इसका सांकेतिक अर्थ यह भी है कि जीवन की संपूर्णता के लिए केवल शुभत्व और धवलता ही ज़रूरी नहीं है बल्कि कालिमा और अंधेरा भी ज़रूरी है ।   इस कविता संग्रह के संदर्भ में गंगा श्रेष्ठ, दैवीय, पवित्र, सकारात्मक और धवल विचारों की प्रतीक है वहीं यमुना सांसारिक विरोधाभासों और कटु यथार्थों से उत्पन्न श्यामल विचारों की प्रतीक है । बरसों से अलग अलग रूपों और संदर्भों में प्रवाहित हो रही इन धाराओं का जब “अन्तर्मन” में मिलन होता है तो वह “तीर्थराज” हो जाता है, उसका कण कण पवित्र हो उठता है, उसके चिंतन में सकारात्मक यथार्थ का समावेश हो जाता है और तब वह समाज को धवलता का संदेश देने के लिए प्रस्तुत हो जाता है । प्रतिभा तिवारी का यह कविता संग्रह चिंतन और अनुभूतियों के इन्हीं पवित्र कणों का संकलन है ।
      किसी रचनाकार के लेखन को समझने के लिए सृजन के दौरान उसकी मनःस्थिति और परिस्थितियों का विवेचन ज़रूरी होता है । अपनी रचनाधर्मिता के बारे में कृति के प्रारम्भ में ही प्रतिभा जी बहुत विनम्रता से सूचित करती हैं कि उन्होने लगभग बारह वर्ष की उम्र से लेखन प्रारम्भ किया था । वे मानती हैं कि जीवन में अति हर्षोल्लास एवं गहन विषाद के क्षण, दोनों ही स्थितियाँ भावातिरेक हेतु उत्तरदायी होते है और कभी कभी लेखनी द्वारा शब्द रूप पा जाते हैं । उनका आत्मकथ्य पढ़ते हुये ऐसा लगता है जैसे वर्ष 2013 का नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाली सुपरिचित अमरीकी कथाकार एलिस मुनरो के वक्तव्य का भारतीय रूप पढ़ रहे हों । एलिस मुनरो अपने बारे में बताती है :
जब मैं किशोरी थी तब मैं खूब शारीरिक काम किया करती थी, क्योंकि मेरी मां ज्यादा काम नहीं कर सकती थी । लेकिन यह मुझे रोकने के लिए काफी नहीं था । मुझे लगता है, एक तरह से यह मेरी खुशकिस्मती थी । अगर मैं न्यूयॉर्क में किसी काफी धनी परिवार में जन्मी होती, ऐसे लोगों के बीच जो लेखन के बारे में सबकुछ जानते होते, तो मैं पूरी तरह से नष्ट हो जाती । तब मुझे बार बार ऐसा लगता कि मैं ऐसा नहीं कर सकती और मेरा आत्मविश्वास डोल गया होता । लेकिन क्योंकि मेरे आसपास ऐसा कोई नहीं था, जो लिखने के बारे में सोचा करता था, इसलिए मेरे अंदर यह विश्वास आया कि हां, मैं यह कर सकती हूं ।“
यहाँ जिस विश्वास की चर्चा एलिस मुनरो कर रही है वो ही विश्वास, उसी संघनित रूप में प्रतिभा तिवारी में भी दिखाई देता है । और यही विश्वास एक समर्थ रचनाधर्म की आधारशिला है ।

      प्रतिभा जी अनुभव सम्पन्न है और उनका अनुभव उनके शब्दों में सहज ही उतर आता है । उनकी अनुभूतियों ने अपने परिवार, अपने बच्चों और उनके माध्यम से वैश्विक संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का सफल माध्यम कविता को बनाया है । उनकी रचनाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित करती हैं कि कविता की सार्थकता किसी विचार विशेष का अनुगमन करने में नहींबल्‍कि मानवीय वेदना और संवेदना को मुखरित करने और उसके माध्यम से बेहतर जिंदगी की संभावनाओं को तलाश करने में है । आज जब परिवार, बच्चे, रिश्ते सब तेज़ ज़िंदगी की आपाधापी में कहीं पीछे छूट चुके हैं तब ऐसे बहुत बिरले रचनाकार हैं जिनहोने अपनी रचनाओं में और अपने चिंतन में, अपने विचारों में और अपने सरोकारों में सम्बन्धों और रिश्तों को शिद्दत से बचा कर न केवल रखा है बल्कि उनको संस्कारित किया है, उनकी जातीयता को सहेज कर रखा है और उन रिश्तों को अगली पीढ़ी तक सुरक्षित पहुंचाने का दायित्व भी स्वेच्छा से ग्रहण किया है । प्रतिभा तिवारी इसी दायित्वबोध की समावेशी प्रतिदर्श हैं । उनकी कवितायें “यशोदा का कृष्ण”, “देखो घर आ गई बिटिया सजीली”, “संस्कार डालें”, “बेटी की विदाई”, “दिन हँसते-मुसकाते होंगे” आदि कविताओं में अपने आसपास के वातावरण, लोगों, और तमाम ज़रूरी तत्वों के लिए वही धारा जीवंत रूप में अपने पूरे उत्स से प्रवाहमान है जो चिली की सुपरिचित कवयित्री गैब्रीयला मिस्तरल की कविताओं के शिल्प और भाव-भूमि में है और लगता है कि जो कुछ प्रतिभा तिवारी अपनी कविताओं में कह रही हैं वही चिंतन सूत्र रूप में गैब्रीयला मिस्तरल दे रही हैं । इस संबंध में उनकी बहुचर्चित कविता “सी नोम्ब्र ए ओए” (हिज़ नेम इज़ टुडे) दृष्टव्य है :

            हम बहुत सी गलतियों और
            बहुत से पापों के लिए शर्मिंदा हैं ।
            पर
            हमारा सबसे घृणित अपराध है
            बच्चों का परित्याग
            और इस प्रकार जीवन की गतिशीलता को अनदेखा करना ।

            बहुत सी चीज़ें
            हमारा इंतज़ार कर सकती हैं ।
            पर बच्चे नहीं-

            अब वह समय आ गया है
            जब उसकी हड्डियाँ बनने लगी हैं
            उसकी रगों में खून दौड़ने लगा है
            और उसकी अनुभूतियाँ जागने लगी हैं ।

            उसे हम
            भविष्य के लिए नहीं टरका सकते-
            उसका नाम “आज” है ।                       (भावानुवाद : आनंदकृष्ण)

      इस कविता में जिसे “आज” कहा गया है उसकी शक्ति बन कर प्रतिभा जी अपनी कविता “शुभ-कामना” में कहती है :
            हो सुख का समय या कि दुःख का हो डेरा,
            सदा साथ पाओगे तुम साथ मेरा
            कि संघर्ष में मैं सदा साथ दूँगी,
            हंसी अपनी देकर मैं ग़म बाँट लूँगी;
            मैं दूँ साथ हर दम ये तुम भी मनाओ..... ।।

                              हजारों बरस तुम जियो मुस्कुराओ,
                              हजारों बरस तुम जियो मुस्कुराओ ।।
      प्रतिभा तिवारी की कविताओं को पढ़ते हुये यह आश्वस्ति होती है कि वे एक नैसर्गिक कवयित्री हैं । वे  केवल कवयित्री ही हो सकती थीं, जो वे हुई । उनकी कविता के विषय बहुत सीधे सादे, आसपास की दुनिया के जाने पहचाने चित्र हैं जिनको उन्होने मौलिक रंग देकर उनको नए रूप और नए अर्थ दे दिये हैं । संग्रह में उनकी ऐसी अनेक कवितायें हैं जो यथार्थ के कड़वे सच से सामना कराती है और जिनमें उनके संवेदनशील मन के आँसू चमकते दिख जाते हैं । “दिल रोया आँखें रोई”, “कभी गौर तो किया होता”, “बिखरे मोती”, “बीते दिन” सहित अनेक कविताओं में उनका सूक्ष्म यथार्थबोध प्रतिबिम्बित होता है ।
      समकालीन वाङमय में स्त्री विमर्श एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति के रूप में उभरा है जिसने सृजन और चिंतन के कई आयामों को प्रभावित किया है; किन्तु यह विडम्बना है कि स्त्री विमर्श की अवधारणा अपने लक्ष्य से भटक गई है । आज स्त्री विमर्श के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है उसे पढ़ कर लज्जा से सिर झुक जाता है । स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री के अस्तित्व के एक बहुत छोटे से अंश पर ही सब कुछ केन्द्रित कर दिया गया है । स्त्री के सरोकार, उसकी ज़रूरतें, उसकी वांछनाएँ हाशिये से भी बाहर हो चुकी हैं । हमारे समय की ये बहुत बड़ी त्रासदी है । हम उत्तर आधुनिकता की बातें करते हैं पर सही अर्थों में हम अभी आधुनिक भी कहाँ हुये हैं-?? यथार्थ से परे की नारेबाजी प्रतिभा जी को प्रभावित नहीं कर पाई । उन्होने स्त्री होने के दर्प को अपनी कविताओं में जिया है और उसके अस्तित्व का समग्र रचनात्मक अन्वीक्षण किया है । स्त्री विमर्श  के सधे हुये, स्पष्ट और व्यावहारिक स्वर उन की रचनाओं में सहज रूप से विद्यमान हैं । उनकी लंबी कविता “अनुभूति.... चेतना.... संकल्प” में लड़की “सोई हुई लड़की”, “जागी हुई लड़की”, “डरी हुई लड़की”, “एक चुप-चुप लड़की”, “एक मुड़ती हुई लड़की”, “कुछ सोचती हुई सी लड़की” और “एक सहमी सी लड़की” के विविध रूपों में आती है । ये सारे रूप उसे समाज ने दिये हैं । पर इस कविता का चमत्कार वहाँ से शुरू होता है जब वे पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती है :

और फिर उसकी भी चाल तेज हो गई
आँखें भी चमक उठीं, मुट्ठियाँ भी तन गईं
दांतों को भी भींचा, चेहरे पे एक तेज उठा
शक्ति को जगाया और खुद संकल्प बन गई
डर कर या दब कर अब जीवन नहीं जीना है ।
पाप खतम करना है जहर नहीं पीना है
दुनिया के फंदों का, पातकी दरिंदों का
सामना ही करना है पापियों से लड़ना है ।
हिम्मत बढ़ाऊंगी  तभी जीत पाऊँगी
आज अब अकेली ही आवाज़ एक उठाऊँगी
तभी मेरे जैसी उन लाखों करोड़ों का
साथ पा जाऊँगी आगे पग बढ़ाऊंगी
पापियों दरिंदों को सज़ा दिला पाऊँगी
आगे न हो ऐसा ऐसे नियम बनाऊँगी
मेरे जैसी हर एक लड़की को दुनिया में
शान और सम्मान का जीवन दिला पाऊँगी
देखी संकल्प ले कर बढ़ती हुई लड़की ....
देखी संकल्प ले कर बढ़ती हुई लड़की ....

      असली स्त्री विमर्श ये है जिसमें स्त्री की जागरूकता, उसके स्वाभिमान और उसके संकल्पों को शब्द दिये गए हैं ।
      मैं अभी एलिस मुनरो की बात कर रहा था । उनकी एक कहानी रन अवेमें एक औरत कार्ला है जो कहानी की नायिका है । उसका दांपत्य जीवन काफी कठिनाइयों भरा रहा है । वह अपने पति को छोड़ने का फैसला करती है जो पश्चिमी समाज में एक साधारण बात है । एक उम्रदराज और तार्किक औरत सिल्विया जेमिसन की बातों से उसे ऐसा करने का हौसला मिलता है. और जब वह बाहर निकलने के लिए कदम बढ़ाती है, वह महसूस करती है कि वह ऐसा नहीं कर सकती । एलिस मुनरो इस कहानी के बारे में कहती हैं कि “यह समझदारी भरा फैसला है” । उसके पास उस जीवन से बाहर आने के कई कारण हैं, पर वह ऐसा नहीं कर पाती ।  आखिर ऐसा क्यों होता है ? इसका कारण भले ही पश्चिम के पास न हों किन्तु भारत में इसका उत्तर कोई बच्चा भी दे सकता है । यह सार्वत्रिक और सर्वकालिक संस्कारशीलता है जिसे पश्चिम अब पहचान पा रहा है । भारतीय साहित्य ऐसे संस्कारित और सर्वमान्य मूल्यों से भरा पड़ा है जिसकी प्रतिच्छवियाँ प्रतिभा जी की कविताओं में सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं । जिस फैसले को एलिस समझदारी भरा फैसला कह रही हैं उसे तथाकथित स्त्रीवादी और स्त्री विमर्श के झंडाबरदार “स्त्री की गुलामी” और “पुरुष समाज की तानाशाही”, “फासिस्ट सोच” और न जाने क्या क्या कह कर खारिज कर सकते हैं किन्तु एलिस ने परिवार को जोड़कर रखने की, एक रिश्ते को बना कर रखे जाने की हिमायत की है जो आज के विघटनकारी समय की सबसे ज़रूरी बात है । यह आयाम भारतीय दर्शन का मौलिक और सर्वाधिक सशक्त आयाम है । ऐसे भारतीय संस्कार प्रतिभा जी की रचनाओं में प्रचुरता से हैं ।  

      गैब्रीयला मिस्तरल और एलिस मुनरो की चिंतन धारा से प्रतिभा तिवारी की चिंतन धारा कहीं कमतर नहीं है । कमी केवल गंभीर पठनीयता की, स्पष्ट व्याख्या की और गहन विमर्श की है । इसके कारण भारतीय कला-साहित्य के स्वर्ण-कण धूल में गुमनाम पड़े रह जाते हैं । उनका कोई मूल्यांकन नहीं हो पाता और जब किसी सहृदय की दृष्टि उन पर पड़ती है तो वे ही गुमनाम, अनदेखे विचार-रत्न पश्चिम से झाड़-पोंछ कर हमारे सामने आते हैं जिनका हम खुले दिल से स्वागत करते हैं । अभिव्यक्ति के तरीके भिन्न होने के बावजूद साहित्य के शाश्वत मूल्य सारे विश्व में एक से हैं । उन शाश्वत मूल्यों और अपनी अभिव्यक्ति को समझने और उनको उचित सम्मान दे कर ही हम हमारे साहित्य और हमारी कलाओं को वैश्विक पटल पर सम्मानजनक स्थान दिला सकेंगे ।

      प्रतिभा तिवारी की रचना-धर्मिता एक निश्चित दिशा और सार्वकालिक व्यापक विचार धारा के साथ निरंतर विकास कर रही है । उनकी कविता अपनी शक्ति, सृजनशीलता, मन और आत्मा को पूरी शिद्दत के साथ रूपायित कर देने को बेचैन प्रतीत होती है । यही बेचैनी दैवीय चेतना के अवतरित होने, नाज़िल होने की पूर्वाशंसा है । समय का, सच्चाई का और विद्रूपों का सामना करते हुये ये कवितायें एक स्पष्ट विकास-धारा की आश्वस्ति देती हैं । इनमें जूझने का माद्दा है, संघर्ष करने की शक्ति है और जीतने का हौसला भी; इसलिए इनको किसी नारेबाजी की ज़रूरत नहीं- । इन दिनों जब रिश्तों की गर्माहट कम होती जा रही है तब रिश्तों की अहमियत समझने वाले प्रतिभा जी जैसे बिरले रचनाकारों का पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ सक्रिय होना शुभ संकेत देता है । उनका यह पहला कविता संग्रह ज़रूर है किन्तु इसमें उनकी सुदीर्घ साधना के विविध पड़ावों का इतिहास और भूगोल है जो उनके रचनाकार की यात्रा का दस्तावेज़ है । समकालीन दौर की भीषण त्रासदियों के बीच साहित्य या किसी भी कला का हस्तक्षेप इस बात की आश्वस्ति देता है हमारा समय कितना भी कठिन और अविश्वासनीय हो किन्तु रचनाकार एक बेहतर दुनिया को बनाने की अपनी ज़िद पर अड़े हुये हैं और उसके लिए निरंतर प्रयत्नशील भी हैं । हमारे आज को समझने के लिए और भविष्य की दिशा निर्धारित करने के लिए ये रचनाएँ आम पाठकों के साथ युवा रचनाकारों को भी पढ़ना चाहिए । कुल 80 छोटी-बड़ी कविताओं का यह संग्रह प्रतिभा जी के व्यक्तित्व को भी समझने का एक बेहतरीन अवसर देने के साथ ही समाज को नए तरीके से चिंतन करने के लिए प्रेरित करेगा, ऐसी आशा की जाना चाहिए ।

      पाकिस्तान की मकबूल शायरा ज़ाहरा निगाह की एक छोटी सी नज़्म मुझे इस पुस्तक को पढ़ते समय अक्सर याद आती रही । उस नज़्म के साथ प्रतिभा जी को बहुत बहुत शुभकामनायें :
मुलायम गरम समझौते की चादर
ये चादर मैंने बरसों में बुनी है ।
कहीं भी सच के गुल-बूटे नहीं हैं
किसी भी झूठ का टांका नहीं है ।

इसी से मैं भी तन ढक लूँगी अपना
इसी से तुम भी आसूदा रहोगे
न खुश होगे न पजमुर्दा रहोगे

इसी को तान कर बन जाएगा घर
बिछा लेंगे तो खिल उटठेगा आँगन
उठा लेंगे तो गिर जाएगी चिलमन
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कृति परिचय :
अन्तर्मन की गंगा-यमुना (कविता संग्रह)
रचनाकार : प्रतिभा तिवारी
प्रकाशक : रंग प्रकाशन, इंदौर (म.प्र.)
आवरण : सारंग क्षीरसागर
संस्करण : प्रथम (2013)
पृष्ठ : 111 मूल्य : रु. 200/-
समीक्षक : आनंदकृष्ण
4/2, अरेरा टेलीफोन एक्सचेंज परिसर,
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