मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

सफेद पर्दे पर : एक अभिजात्य शून्यता
(डॉ. रमेश चन्द्र शाह के उपन्यास पर केन्द्रित)


''मैंने एक कमरे के घर में चार सदस्यों के परिवार को पाला पोसा, बच्चों को लिखाया पढाया और आज इसी शहर में मेरे बेटे के चार मकान है जिनमें उसके बूढे बाप के लिए एक कोना भी नसीब नहीं है ।''

फिल्म ''लगे रहो मुन्ना भाई'' में वृद्धाश्रम में रहने के लिए मजबूर हुए नि:शक्त और बेबस बुजुर्ग का उक्त आशय का कथन समाज के उस विद्रूपित और घृण्य चेहरे का अक्स हमारे सामने रखता है जो विगत वर्षों मे तेजी से घनीभूत होता हुआ मानव के बहिर्मुखी और अंतर्मुखी व्यक्तित्वों में से मूल्यों के तिरोहित होने और उस समग्र प्रदूषण को मानव के डीएनए में शामिल होने तक के खतरे की गंभीरता उकेरता है । यह प्रवृत्ति मानवीय सभ्यता की कृतज्ञता-ज्ञापन की विशेषता को विस्मृत करने का प्रयास है और इसीलिए समाज का एक नया चेहरा, नया रूप और नई अनुभूतियों के साथ सामने आता है जहां वर्जनाएं दम तोड़ती नजर आती है और नित नए प्रतिमान आविर्भूत होते जाते हैं ।
अपनी बुजुर्ग पीढ़ी का सम्मान, उनके दाय को विनम्रता और श्रद्धा के साथ स्वीकार करने व उनके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन करने की समझ के विकास की अनिवार्यता ने सर्जना के समस्त माध्यमों को अनुप्राणित किया है और इसके लिए रचनाकार गंभीरता से मनन-चिंतन व सृजन में रत है । किंतु डॉ रमेशचन्द्र शाह का उपन्यास ''सफेद पर्दे पर'' अपने कथ्य, प्रस्तुति और चिंतन की दृष्टि से भिन्न है ।

''सफेद पर्दे पर'' कुल जमा 118 पृष्ठ का उपन्यास है । इसमें कथानायक मनोविज्ञान के प्राध्यापक पद से सेवा निवृत्त हो चुका है और 65 वर्ष की उम्र में उसे अचानक वानप्रस्थ आश्रम में जाने की बात सूझती है । उसके परिवार में बेटा-बहू व पोता है और एक बेटी है जो विवाहित है । पत्नी का निधन हो चुका है । कथानायक अपने बेटा-बहू और पोते के साथ सुखी और निश्चिंत जीवन यापन कर रहा है, तभी वह वानप्रस्थ में जाने का निर्णय लेता है । उसी शहर में उसका एक और फ्लैट है जिसमें जाकर वह रहने लगता है । उस फ्लैट में सुख सुविधा के सारे साजो सामान मौजूद है । एक रामरती बाई है जो उसके लिए खाना बनाने और फ्लैट की साफ सफाई का काम करती है । एक पारिवारिक मित्र सप्रे साहब हैं जो रिटायर्ड आई।ए।एस हैं । सप्रे साहब अभी अभी ऑस्ट्रेलिया से आए हैं । वहां से वे एक एनजीओ का प्रोजेक्ट लाए हैं, जिसमें वैकल्पिक शिक्षा, जल संग्रह के पारंपरिक तौर तरीक़ों का पुनरुद्धार, जीवनोपयोगी कार्यों के रूप में भारतीय दर्शन, योग, विपश्यना आदि के शिविर लगाने का कार्य किया जाना है । कथानायक इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता । कथानायक का एक बालसखा है-विनय मोहन; जिसे कथानायक सोसो कहकर पुकारता है । सोसो कथानायक के पास आता है । उसी दौरान सप्रे साहब अपने प्रोजेक्ट के बारे में बताते हैं । सोसो उनके प्रोजेक्ट में सहयोग की स्वीकृति देता है ।

कथानायक के वानप्रस्थ के आश्रम (उसके फ्लैट) के पड़ोसी फ्लैट में प्रोफेसर दत्ता रहते है । प्रोफेसर दत्ता और उनकी पत्नी से कथानायक की दोस्ती हो जाती है । उनके साथ भी कथानायक का वैचारिक आदान-प्रदान व चर्चाएं होती रहती हैं । ये चर्चाएं समकालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक मूल्यों पर बुद्धिजीवियों के चिंतन-मनन को सफलता के साथ उकेरती हैं ।

कथानायक की बेटी अपने पिता को लिखे गए पत्र के साथ उपन्यास में प्रकट होती है । यह पत्र भाषा, प्रवाह, अभिव्यक्ति और समग्रत: शिल्प में बेजोड़ है और लेखक की रचनात्मक सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज है । अपने पत्र में कथानायक की बेटी पिता के वानप्रस्थ के निर्णय की तर्कपूर्ण धज्जियां उड़ाते हुए उन्हें वापस परिवार में आने के लिए लिखती है और उन्हें अपने पास शिमला बुलाती है । कथानायक अपने सलाहकार दत्ता साहब से सलाह लेकर अपनी बेटी के पास जाने का निर्णय लेता है । इस संबंध में सोसो को सूचना देने के लिए कथानायक के द्वारा लिखे गए पत्र के साथ उपन्यास का प्रवाह विराम लेता है ।

इस उपन्यास की पहली विशेषता तो यही है कि यह वृद्धों की सामान्य समस्याओं, उनके सरोकारों और आकांक्षाओं के बारे मे चिन्तन न करते हुए अभिजात्य और उच्च बुद्धिजीवी वर्ग के ऐसे वृद्धों के जीवन की परतें खोलता है जिन्हें पारंपरिक तरीके की पारिवारिक, आर्थिक और यहां तक कि स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का भी सामना नहीं करना पड़ता है । ये वे लोग हैं, जिन्होंने जीवन भर उच्च पद पर रहते हुए जीवन के समस्त सुख-उपभोगों का आनंद लिया, उनके बच्चे भी भली भांति पढ़-लिख कर सुस्थापित हो चुके, उनके पास भरपूर चल-अचल संपत्ति है और शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ, तृप्त व संतुष्ट रहते हुए वे अपने कर्मक्षेत्र के आभामण्डल को अपने जीवन का अंग बना चुके हैं । कथा नायक मनोविज्ञान का प्राध्यापक रहा था इसलिए उसका मित्र विनय मोहन उसे 'साइको' कह कर पुकारता है और विनय मोहन समाजशास्त्री (सोष्योलॉजिस्ट) है इसलिए उनका मित्रनाम 'सोसो' है । पूरा उपन्यास कथानायक के एकालाप व आत्मालाप के रूप में है जिसमें अन्य पात्रों की उपस्थिति होने पर ही संवाद मिलते है । पूरे उपन्यास में कथानायक का स्वयं से संघर्ष है । कथानायक का चरित्र उसके इसी आत्मालाप में स्पष्ट उभरकर सामने आता है । कथानायक की वैचारिक सामर्थ्य का चित्रण करने में विशेष सावधानी बरती गई है फिर भी पाठक यह देखकर भौंचक्का रह जाता है कि इतना बड़ा मनोविज्ञानी, इतना महान विद्वान भी मूल रूप से एक अत्यंत साधारण व्यक्ति की ही भांति सोचता है । उसके अंतर्मन में भी वैसी ही दुनिया है जैसी एक अत्यंत साधारण व्यक्ति की दुनिया होती है- एक ऐसी दुनिया; जिसमें व्यक्ति अपनी छोटी छोटी चीजों के इधर उधर हो जाने पर झुँझलाता है, अपनी स्वर्गवासी पत्नी के साथ हुए लड़ाई झगड़ों को पूरी भावुकता के साथ याद करता है और बेटे और खास तौर पर बहू के प्रति अपना पारंपरिक असंतोष व्यक्त करता है ।

कथानायक के द्वारा वानप्रस्थ आश्रम में जाने के निर्णय का विरोध भी पारंपरिक तर्को और मान्यताओं के आधार पर किया जाता है जिसमें यह आशंका प्रमुखता से व्यक्त की जाती है कि लोग कहेंगे कि बेटे-बहू ने कुछ गलत व्यवहार किया होगा इसलिए ये नाराज होकर अकेले रहने चले गए । लोगों के सोचने का यह डर बुजुर्गों को अत्यधिक सहनशील बना देता है, और आम पाठक यह सोच कर विस्मित रह जाता है कि निम्न वर्ग के चिंतन की यह प्रवृत्ति अभिजात उच्च-वर्ग में भी होती है ।
अभिजात उच्च-वर्गीय वृद्ध कथानायक अपने रिटायरमेण्ट के बाद अपनी तमाम बौद्धिकता और पैंसठ वर्षीय उम्र के साथ अपने अभिमान की पराजय स्वीकारते हुए तथा अपनी और ध्यान आकृष्ट करने के लिए वानप्रस्थ ग्रहण करता है । उसका वानप्रस्थ भी सोफिस्टिकेटेड और अभिजात्य शैली का फैशन नुमा वानप्रस्थ है । पाठक उपन्यास के लगभग शुरू में ही समझ सकता है कि उपन्यास के अंत में ये महाशय अपना वानप्रस्थ त्यागेंगे ।

उपन्यास में कथानायक का चरित्र स्वयं भी एक साइको-केस के रूप में अध्ययन के योग्य है । कथा नायक में बहुत गहरे कहीं गहन हीन भावना है जिसके कारण वह बहुत जल्दी दूसरों से प्रभावित हो जाता है और प्रभावित भी ऐसा कि अपने आत्मालाप में उसकी स्तुति ही करने लगता है । चाहे वे दत्तात्रेय दंपत्ति हो, चाहे रामरती बाई वह किसी से भी असीमित प्रभावित हो जाता है और उसमें उसे अपने सारे प्रश्न, सरोकार और विश्वास समाहित लगते है । उसकी इसी हीन भावना के कारण ही वह ऐसे कार्य करता है जिससे लोगों का ध्यान उसकी और आकर्षित हो सके ।

यह उपन्यास बुद्धिजीवी वर्ग के उथले और खोखले यथार्थ को स्पष्ट प्रकाशित करता है । लंबे बौद्धिक वाग्वितंडावाद ने कई जगह उपन्यास का प्रवाह अवरूद्ध किया है । कई जगह ऐसा स्पष्ट परिलक्षित होता है कि कथाक्रम का कलेवर बढ़ाने का प्रयास किया गया है । यदि उसमें कसावट का ध्यान रखा जाता तो यह एक शिथिल उपन्यास न होकर एक श्रेष्ठ लंबी कहानी होता । पूरी कृति में सभी पात्र चूंकि उच्च शिक्षित, एकेडेमिक लोग हैं; अत: भाषा के मामले में विशेष सतर्कता बरती गई है ।

लेखक की एक चूक असहनीय है । प्रारंभिक पृष्ठ पर कथानायक के एक सम्माननीय परिचित 'आशीष दा' उसे ''देवेश'' कर कर संबोधित करते है तो पृष्ठ 49 पर बताया गया है कि कथा नायक का नाम ''ध्यानचंद'' है जिस उसका मित्र 'सोसो' बचपन में 'ध्यानू' कह कर पुकारता था । नाम की यह विसंगति खटकती है । इसी तरह पूरे उपन्यास में कथानायक वाचक के रूप में रहता है, किंतु पृष्ठ 100 से 107 तक चैप्टर 17 में उसे अचानक 'कथानायक' व 'चरितनायक' कहते हुए लेखक स्वयं प्रकट हो जाता है । इस परिवर्तन का कोई स्पष्ट कारण दिखाई नहीं देता ।

यह पूरी कृति अपने समेकित रूप में पलायनवादी दृष्टिकोण का विरोध करती है । अपनी रचनात्मक क्षमता और योग्यता के अधिकाधिक प्रयोग करने की वकालत करते हुए लेखक ने कथा नायक और उसके मित्रों के माध्यम से उच्चशिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग के अंतर्मन की उस गहराई तक झांकने की सफल कोशिश की है, जिस गहराई को बुद्धिजीवी वर्ग सदैव आवरण डालकर रखता है और जहां प्रवेश की अनुमति किसी को नहीं मिलती । इस बुद्धिजीवी व्यक्तिवाद के अपने विशिष्ट सामाजिक संदर्भ हैं जिनकी विशद व्याख्या समग्र सामाजिक अध्ययन के लिए जरूरी है । यह कृति उन बुद्धिजीवी व्यक्तिवादियों के लिए अपने आवरण से निकल कर एक सहज और सामाजिक जीवन जीने के लिए एक गेट पास है । उनके मनोविज्ञान को रूपायित करने में लेखक को सफलता मिली है ।

आधुनिक युग के समग्र परिदृश्य में, जब हम मानव मन की गहन-गोपन गुफा में प्रवेश कर वहां से नए नए निष्कर्ष निकाल रहे हैं, वहीं, समाज की बहिर्मुखी चेतना से अपना तादात्म्य स्थापित करने की कोशिशों के साथ, भीतर और बाहर चल रहे झंझावातों के बीच में से उभर कर सामने आ रहे समाज के नए स्वरूप में मूल्यों और रचनात्मक संभावनाओं के लिए गुंजाईश बनाए जाने की जरूरत है । ''सफेद पर्दे पर'' उपन्यास इस जरूरत को समाज के एक विशिष्ट वर्ग को संप्रेषित करने में सक्षम है ।

चूंकि यह कृति विशिष्ट वर्ग के लिए उसके अनुरूप वातावरण को रेखांकित करती है, अत: यह कृति स्पष्टतः साधारण व्यक्ति के लिए अनुकरणीय नहीं है । साधारण व्यक्ति जानता है कि रिटायर होने के बाद उसे बेटी की शादी करना है, बेटे-बहू, नाती-पोतों की देखभाल करना है, ब्लडप्रैशर और डाइबिटीज की दवाइयां लेना है और सारे संघर्षों के साथ उसे परिवार में ही रहना है । वानप्रस्थ आदि उसके लिए विलासमय सोच होती है । वह रिटायरमेण्ट के बाद जीवन भर सांसारिक प्रपंचों को त्यागने की योजनाएं बनाता रहता है और वे योजनाएं कभी पूरी नहीं होतीं । उपन्यास में वर्णित वानप्रस्थ की तो वह कल्पना भी नहीं कर पाता ।

बहुत विशालकाय पाठकवर्ग के लिए यह उपन्यास सिनेमा के उस सफेद पर्दे जैसा ही है जिस पर उत्कंठित करने वाली, स्वप्न दिखाने वाली और दर्शक की यथार्थपूर्ण परिस्थितियों के सापेक्ष कल्पना की उंची उड़ानें भरने वाली फिल्म चलती रही हो और फिल्म समाप्त हो जाने के बाद ''सफेद परदें पर'' एक अभिजात्य शून्यता और खामोशी फैल गई हो ।
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(यह समीक्षा रचनाकार ब्लॉग पर २५-१२-२००७ को प्रकाशित हो चुकी है जिसके लिए मैं श्री रवि रतलामी का आभारी हूँ.)

1 टिप्पणी:

  1. anandkrishn ji, anand aa gaya aapka blog dekh kar.. main bhi ek purana blogger hun. political & social issues ke liye - www.samajsevasamiti.blogspot.com aur share trading ke liye - www.shares2share.blogspot.com . . dekhiyega samay milne par. Kabhi ghar aayiye, kaafi samay hua mulakat ko. Jai Hind, Priyank Thakur

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