सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

प्रतीक्षा

मेरी आंखों में
सपनों का उजास है
जिसे तुम सह नहीं पाते ।

मेरी थरथराती अंगुलियां
कुछ रचनेके लिए बेताब हैं-
यह जानना
तुम्हारे लिए एक चेतावनी का सायरन बन गया ।

मेरे मुंह से फूटते शब्द
एक नदी बन जाएंगे-
यह आशंका ही तो
बांध का पहला नींव का पत्थर बन गई ।

कहीं गीत-बांसुरी न बजने लगे-
इसलिए तुमने
बांसॊं के जंगल में भस्मासुर भेज दिया ।

ये सच है
कि सच बोलने वाले मारे जाएंगे
और ये भी कि यह सच बोलने वाले भी नहीं बचेंगे
पर उजास के,
थरथराहट के,
प्रवाह के,
और बांसुरी के
अपने निजी सच भी हैं
जो न बचने वालों को बचाते हैं ।

तो आओ-!
दुनिया के शूरवीरो-!

मेरी अधखुली आंखें
और थरथराती अंगुलियां
तुम्हारी व्यग्र प्रतीक्षा करती हैं ।

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