सोमवार, 13 अक्तूबर 2008


एक हिंदी ग़ज़ल : चांदनी

(शरद पूर्णिमा पर विशेष)


क्या शरारत वहां कर रही चांदनी-?

रात भर खिडकियों पर रही चांदनी।


मैं तुम्हारे लिये गीत गाने लगा-

इसलिये आजकल डर रही चांदनी।


सब तुझे खोजते ही रहे उम्र भर-

तू छुपी सबके भीतर रही चांदनी।


फूल से सीख ली हैं सभी हरकतें-

हंस रही, खिल रही, झर रही चांदनी।


आइना देखने की ज़रूरत नहीं-

आपके हुस्न पे मर रही चांदनी।


"कृष्ण" की बांसुरी की मधुर गूंज पर

रात भर घर से बाहर रही चांदनी।


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