मिट्टी की गंध और
रिश्तों के रंग सहेजने के लिए काफी है “मुट्ठी भर आकाश”
(सुरभि सक्सेना के कविता संग्रह की भूमिका)
कविता वैयक्तिक
अनुभूतियों और दैवीय चेतना के संगम से उत्पन्न अनुगूँज है । अनुभूतियाँ प्रत्येक
जीवंत और संवेदनशील व्यक्ति की संपत्ति होती हैं और जब इन अनुभूतियों के साथ दैवीय
चेतना का समन्वय होता है तब कविता जन्म लेती है । यहाँ दैवीय चेतना का अर्थ उस
चेतना से है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है और जिसमें विवेक, विश्लेषण-क्षमता और दृष्टा होने की समझ विद्यमान होती है ।
कविता लिखी या कही
नहीं जाती, बल्कि उसका अवतरण होता है; वह नाज़िल होती है । रचनाकार अपने सर्वाधिक सक्रिय,
और ऊर्जावान क्षणों में इस अवतरित हो रही; नाज़िल हो रही
ऊर्जा को ग्रहण करके उसे शब्दों में बांध कर उसे लौकिक और सर्वकालिक रूप प्रदान
करता है । इस दृष्टि से कविता जीवन के समग्र स्वरूपों,
सरोकारों और जिजीविषाओं का व्यापक और प्रामाणिक दस्तावेज़ होती है और रचनाकार इस
अर्थ में एक ऐसा दृष्टा होता है जो समय को, उसके वर्तमान और
भविष्य को, सटीक तरीके से विश्लेषित-व्याख्यायित करता है ।
समकालीन समय में
जहां एक ओर सामाजिक, आर्थिक,
वैयक्तिक और यहाँ तक कि बौद्धिक संत्रास घनीभूत होते जा रहे हैं, अनास्था और अविश्वास के दौर में तब एक सुरमई उजास की धुंधली सी किरण
कविता में दिखाई देती है । कविता अपनी दिव्य चेतना से मनुष्य को अपने होने की
आश्वस्ति देती है और साथ ही सुबह होने का भरोसा भी दिलाती है ।
युवा कवयित्री
सुरभि सक्सेना के प्रस्तुत प्रथम कविता संग्रह “मुट्ठी भर आकाश” में संग्रहीत कविताओं
में जीवन के यथार्थपरक प्रतिबिंब अपने पूरे उत्स के साथ परिलक्षित होते हैं जिनमें
मिट्टी की ताज़ा खुशबू और रिश्तों के गाढ़े रंग बहुत खूबसूरती से शब्दों में ढलकर एक
ऐसा संसार रचते हैं जो हमारे आसपास ही मौजूद है; हमारे
अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा है और जिसे हम हमेशा महसूस कर रहे होते हैं । यह कविता
संग्रह संख्यात्मक रूप से सुरभि का पहला कविता संग्रह है किन्तु इसकी रचनाओं में एक
ओर अनुभूतियों की प्रौढ़ ऊँचाइयाँ हैं, दूसरी ओर भावनाओं की
गहन गहराइयाँ हैं और इनके साथ-साथ संघर्षों व विद्रूपों की सहज स्वीकार्यता के साथ
उन पर विजयी होने की उत्कट अभिलाषा है जो इस संग्रह को समकालीन युवा वाङमय में अनिवार्य
और अनदेखा न किया जा सकने योग्य बनाती हैं ।
सुपरिचित पोलिश
फिल्म निर्देशक क्रिस्टोफ़ कियेस्लोव्स्की की तीन रंगों की तिकड़ी (नीला, सफ़ेद और लाल) की फिल्मों की भांति सुरभि के रचना संसार में भी प्रेम, अध्यात्म और अपनी मिट्टी से जुड़ाव के तीन रंग हैं । कियेस्लोव्स्की की दो
फिल्में फ्रेंच भाषा में और एक मूल रूप से पोलिश भाषा में बनी थी, सुरभि की कविताओं की भाषा सामान्य हिन्दी होते हुये कुछ कविताओं की भाषा
में उर्दू का (“आरज़ू”, “दिल का हाल”,
आदि) और कुछ कविताओं में संस्कृत का प्रभाव (“जीवन काव्य”,
“जलद प्रणय” आदि) स्पष्ट दिखाई देता है । उसने अपने शब्दों की सृजनात्मक क्षमता पर
पूरा भरोसा करते हुये उनसे अपने काव्य विन्यास में अद्भुत शब्द-चित्र गढ़ने का पूरा
काम लिया है और अपनी इन कविताओं में आध्यात्मिक गौरव और वर्तमान की विकृतियों के
साथ भविष्य का सिंहावलोकन किया है ।
अपने समूचे
रचना-कर्म में सुरभि पूरी सतर्कता के साथ आध्यात्मिक गौरव की बात करते हुये भी आत्म-मुग्ध
नहीं हुई और ना ही वर्तमान की विकृतियों और आवश्यक चिंताओं को शब्द-बद्ध करते हुये
वह आत्म-ग्लानि से ही पीड़ित हुई । उसने अतीत और वर्तमान के आधार पर भविष्य के
सुनहरे, आशापूर्ण और रचनात्मक दिनों की कल्पना की है । उसकी इस कल्पना में कोई
अतिशयोक्ति नही है और ना ही स्वयं की क्षमताओं और सीमाओं से परे जाने की असंभव
काल्पनिकता ही है । उसका भविष्य का दर्शन, अतीत की नींव पर
खड़े वर्तमान के ढांचे पर आकार ले रहे सुंदर भवन की तरह है । “स्वामी विवेकानंद”, “घनश्याम”, “मुरली मनोहर”,
“मेनका”, “नीलकंठ” सुरभि की वे कवितायें हैं जिनमें उसकी गहन
दृष्टि से भारतीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सामर्थ्य व पराकाष्ठा के दर्शन होते
हैं ।
सुरभि की कवितायें
पढ़ते हुये अनायास ही चिली की सुपरिचित कवयित्री गैब्रीयला मिस्तरल की कविताओं का
शिल्प और भाव-भूमि याद आती है । अपनी कविता “सी नोम्ब्र ए ओए” (हिज़ नेम इज़ टुडे)
में वे कहती हैं :
हम बहुत
सी गलतियों और
बहुत से
पापों के लिए शर्मिंदा हैं ।
पर
हमारा सबसे
घृणित अपराध है
बच्चों का
परित्याग
और इस प्रकार
जीवन की गतिशीलता को अनदेखा करना ।
बहुत सी
चीज़ें
हमारा इंतज़ार
कर सकती हैं ।
पर बच्चे
नहीं-
अब वह समय आ
गया है
जब उसकी
हड्डियाँ बनने लगी हैं
उसकी रगों
में खून दौड़ने लगा है
और उसकी अनुभूतियाँ
जागने लगी हैं ।
उसे हम
भविष्य के
लिए नहीं टरका सकते-
उसका नाम
“आज” है । (भावानुवाद
:
आनंदकृष्ण)
सुरभि की अनेक भोली-भाली, मासूम कविताओं
में भी यह “आज” विभिन्न रूपों में बिखरा हुआ है । कहीं वह “पापा की बेटियाँ” “अदा”
और “कोयल” कविताओं में एक छोटी सी बच्ची बन कर उछल-कूद करना चाहती है तो वहीं
“आकर्षिता” कविता में अपनी बेटी के रूप में अपना बचपन फिर से खोजते हुये वात्सल्य
में डूबती-उतराती है ।
सुरभि ने अपनी
कविताओं में प्रेम को पूरी उष्णता के साथ जिया है । उसने बेबाकी से अपनी बात कही
है । प्रेम के अनकहे और अनछुए पहलुओं पर भी उसने ईमानदारी से कलम चलाई है । प्रेम
में आकंठ डूबी नायिका के आनंद के मदमाते क्षणों को और वियोग की तपती रेत सी पीड़ा
को उसने बड़ी बारीकी से उकेरा है । सुपरिचित लैटिन अमरीकी कवि पाब्लो नेरूदा के एक
गीत की पंक्ति है : “कितना संक्षिप्त है प्यार और विछोह की अवधि कितनी लंबी” ।
नेरूदा प्रेम के, विशेष रूप से वियोग के गायक थे और
वैसी ही अनुभूतियों के साथ सुरभि नए शब्द-बंधों को रच रही है । उसका
प्रेम विरहातुर है किन्तु फिर भी वह “दुख की बदली” नहीं बनी । उसने विछोह के दर्द
को सहज रूप में स्वीकार तो किया किन्तु किसी सहानुभूति या दया की उम्मीद किसी से
नहीं की । वह अपने मूलभूत अधिकारों के प्रति सचेत रहते हुये जीवंत आत्मीय लगाव और
ऊर्जावान हंसी के साथ अपने समग्र जीवन की पड़ताल करती है ।
सुरभि नैसर्गिक
कवयित्री है । वह केवल कवयित्री ही हो सकती थी जो वह हुई । समकालीन वाङमय में जिस
स्त्री विमर्श को ले कर हाय-तौबा मची हुई है, उसके सधे हुये, स्पष्ट और व्यावहारिक स्वर सुरभि की रचनाओं में सहज रूप से विद्यमान हैं
। अपनी कविता “हस्ती है मेरी” में वह अपने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती है :
एक तुम तक
नहीं था रास्ता मेरा
एक तुम ही
नहीं थे मंज़िल मेरी
कुछ और भी
मैं पा सकती थी
एक दौर नया
रच सकती थी
इसी कविता में आगे वह कहती है :
तुम मेरे
लिए करते भी क्या.....
जब अपने लिए
कुछ कर पाये ना...
हाथ में जैसे
रेत भरे वक़्त तुम्हारा छूट गया
मेरे आगे रखा
हुआ वो शीशा भी टूट गया ....
इतनी तो समझ
मुझमें भी थी
एक नई इबारत
लिख सकती थी ।
हाथ बढ़ा, पाना है बहुत कुछ अभी
जिसके लिए
हस्ती है मेरी........
सुरभि सक्सेना की रचना-धर्मिता एक निश्चित दिशा और विचार धारा
के साथ निरंतर विकास कर रही है । उसकी कविता अपनी शक्ति, सृजनशीलता, मन और आत्मा को पूरी शिद्दत के साथ
रूपायित कर देने को बेचैन प्रतीत होती है । यही बेचैनी दैवीय चेतना के अवतरित होने, नाज़िल होने की पूर्वाशंसा है । समय का, सच्चाई का
और विद्रूपों का सामना करते हुये ये कवितायें एक स्पष्ट विकास-धारा की आश्वस्ति
देती हैं । इनमें जूझने का माद्दा है, संघर्ष करने की शक्ति
है और जीतने का हौसला भी; इसलिए इनको किसी नारेबाजी की ज़रूरत
नहीं- । इन दिनों जब रिश्तों की गर्माहट कम होती जा रही है तब रिश्तों की अहमियत
समझने वाले सुरभि जैसे बिरले रचनाकारों का पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ सक्रिय होना
शुभ संकेत देता है । समकालीन दौर को समझने के लिए सुरभि सक्सेना जैसे युवा
रचनाकारों को पढ़ा गुना जाना चाहिए । उसका यह पहला कविता संग्रह समाज को नए तरीके
से चिंतन करने का अवसर देगा ऐसी आशा की जाना चाहिए । सुरभि को वरिष्ठ गीतकार श्री
वीरेंद्र मिश्र की चार पंक्तियों के साथ शुभकामनायें :
है नहीं
प्रतिबद्ध जो उस दर्द का कैसा श्रवण-?
साधना भर रह
गया है गीत का मौलिक सृजन ।
शिखर पर
आलोचना है, केंद्र में संपादकी-
कौन समझे आज
मन की अश्रुकंठी गायकी-?
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