एक और ग़ज़ल भेज रहा हूँ। इस पर तारीख पड़ी है- 22-09-1991. आप सबकी प्रतिक्रया का इंतज़ार रहेगा.....
एक ग़ज़ल : बाद मुद्दत के .......
बाद मुद्दत के इक हंसी देखी।
एक मजलूम की खुशी देखी।
उनको देखा तो यूँ लगा मुझको-
जैसे बर-बह्र शाइरी देखी।
जैसे बर-बह्र शाइरी देखी।
दिल के हाथों ही हम हुए मजबूर
हमने ऐसी भी बेबसी देखी।
हमने ऐसी भी बेबसी देखी।
है सितारा बुलंद किस्मत का-
उनकी आँखों में बेखुदी देखी।
नींद- तेरा बड़ा है शुकराना
ख्वाब में हमने आशिकी देखी।
यूँ हुआ इल्म मुक़म्मल अपना-
हमने जब प्यार-दोस्ती देखी।
* * * * * * * *
यूँ हुआ इल्म मुक़म्मल अपना-
जवाब देंहटाएंहमने जब प्यार-दोस्ती देखी। ‘.
bahut khoobsoorat kahaa
जानेमन इतनी तुम्हारी याद आती है कि बस......’
इस गज़ल को पूरा पढें यहां
श्याम सखा ‘श्याम’
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bahut hi sunder rachna hai....
जवाब देंहटाएंaapko dil se badhai....
aapka mere blog par swagat
hai...........
बहुत अच्छा लिखते हैं आप
जवाब देंहटाएंब्लॉग आया हम तक पहुंचा
बाद मुद्दत के इक हंसी देखी।
जवाब देंहटाएंएक मजलूम की खुशी देखी।
उनको देखा तो यूँ लगा मुझको-
जैसे बर-बह्र शाइरी देखी।
दिल के हाथों ही हम हुए मजबूर
हमने ऐसी भी बेबसी देखी।
shabdon ki aisi khoobsurati bahut kam dikhti hai, par jab bhi dikhti dil sirf itna hi kah pata hai... wah wah...
pichhle lagbhag ek saalon se blog mein hun par aaj paschaatap ho raha hai aapke blog ko aaj dekh kar...
नई कविता भी लिखी है या सिर्फ गज़ल लिखते है?
जवाब देंहटाएंBahut achche.
जवाब देंहटाएंआप तो सिद्धहस्त हैं...दर्शनाभिलाषी..
जवाब देंहटाएंकुलवंत सिंह