रविवार, 8 मार्च 2009

मेरी पिछली ग़ज़ल में रदीफ़ "दो" था और इस ग़ज़ल में भी यही रदीफ़ है. दोनों "दो" के अर्थ अलग अलग हैं. बताइयेगा की इस तज़रबे में मैं कितना कामयाब रहा- पेशे-नज़र है ये ग़ज़ल-

ग़ज़ल : कोई हमदम या...............

कोई हमदम या कोई कातिल दो।
मेरी कश्ती को एक साहिल दो.

अब तो तन्हाइयां नहीं कटतीं-
दे रहे हो तो दोस्त-महफ़िल दो।

चांदनी में झुलस रहा है बदन
अब अमावस की रात झिलमिल दो।

उनकी मासूमियत का क्या कहना-?
दिल मिरा ले के कहें- "अब दिल दो."

मुझको बख्शा है ग़र भटकना,
तो-
मेरे पांवों को अब न मंजिल दो।

दोस्ती कर के देख ली मैंने-
एक दुश्मन तो मेरे काबिल दो-!

जिल्लतें, वस्ल, दर्द, तन्हाई-
कुछ तो मेरी वफ़ा का हासिल दो.

होली की अनंत अशेष शुभकामनाएं...........

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब ... आपको भी होली की शुभकामनाएं।

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  2. आनंद भाई
    अभिवन्दन
    ग़ज़ल के सभी शेर क़ाबिले तारीफ़ हैं
    अति उत्तम प्रयास के लिए बधाई
    - डॉ. विजय तिवारी " किसलय "

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  3. बहुत खूबसूरत गज़ल...

    आपको, निक्की को मौली व चारू को होली की ढेर सारी बधाईयाँ...

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  4. आनंदजी, आपकी गज़लें उम्दा हैं, छोटे आकार में बड़ी बातें कहती हैं। मुझे खुशी है की हिन्दी के उत्थान में आपका बड़ा सहयोग हो रहा है। लिखते रहिये। होली की बहुत सारी सुभ कामनाएं आपको और आके सभी प्रशंसको को ।

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  5. बहुत खूबसूरत गज़ल है । बधाई ।

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  6. आप ने रदीफ़ो का बाखूबी इस्तेमाल कर के इस गज़ल को बहुत ही खूबसूरत पेश किया है जिस से हमे भी उर्दू भाशा के प्रयोग के नयी दिशा मिली है । शुभ कामनायें http://harilalmumbai.blogspot.com

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  7. काफी पुरानी पोस्‍ट, आपकी शुभ कामनाऍं स्‍वीकार :)

    सूचना
    यह पोस्‍ट आपसे सम्‍बन्धित है इस लिये भेज रहा हूँ
    http://pramendra.blogspot.com/2009/04/blog-post_14.html

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  8. अनूठा प्रयोग. साहित्य ऐसे प्रयोगों से समृद्ध होता है.

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  9. आपकी लेखनी सदा ही प्रेरणादायी रही है, बहुत समय से कुछ नया नहीं आया..प्रतीक्षारत. , एक झलक मेरे कविताओं के ब्लॉग को भी देख कर सुधार हेतु बातें बताएं :) www.meri-rachna.blogspot.com

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