शुक्रवार, 17 जनवरी 2020



अनुभव की सामर्थ्य और सचेतना से समृद्ध आशंकाओं की प्रतिध्वनियाँ
(वरिष्ठ कवि राजेन्द्र नागदेव के कविता संग्रह “सुरंग में लड़की” पर केन्द्रित)
-आनंदकृष्ण, भोपाल
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देखो वृक्ष को देखो
वह कुछ कर रहा है
किताबी होगा कवि
जो कहेगा कि
हाय पत्‍ता झर रहा है । (रघुवीर सहाय)
               वरिष्ठ कवि श्री राजेंद्र नागदेव ने अपने ग्यारहवें कविता संग्रह “सुरंग में लड़की” को इन शब्दों के साथ समर्पित किया है : “उन शालेय बच्चों को/ जो अंकों की मैराथन दौड़/ में दौड़ते-दौड़ते ज़िंदगी/ से ही बाहर चले गए ।“ परीक्षाओं के परिणाम आने के बाद अखबारों की सबसे पीड़ादायक सुर्खियों पर एक क्षण ठिठक कर, अफसोस की एक हल्की सी लहर को अपने भीतर महसूस करते हुए आगे बढ़ जाने वाले आम पाठक को इन पंक्तियों में झलकने वाली पीड़ा की सघनता विचलित कर के उसे भी उसी सुरंग में धकेल सकती है जहा वह अज्ञात अनाम लड़की चली गई है । तब पाठक अचानक आशंकित हो सकता है कि इस अंधेरी सुरंग का एक हिस्सा कहीं वह भी तो नहीं है !
               विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में होने वाली आत्महत्याओं में दस प्रतिशत अकेले भारत में होती हैं । नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार आत्महत्याओं की दर में हर साल चिंताजनक बढ़ोतरी हो रही है । इनमें किशोरों और युवाओं की संख्या ज्यादा है । पिछले 10 वर्षो में 15 से 24 साल के युवाओं में आत्महत्या के मामले 200 प्रतिशत तक बढ़े हैं । ज्यादातर मामलों में अगर कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है तो इसके लिए उससे ज्यादा उसकी परिस्थितियां दोषी होती हैं । यह कहीं न कहीं हमारे सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक और पारिवारिक तंत्र की पराजय है । दरअसल संयुक्त परिवार के विघटन के साथ ही व्यक्ति के लिए सामाजिक समर्थन की संभावनाएं समाप्त हो गई हैं और उसके स्थानापन्न कोई सक्षम व्यवस्था नहीं बन पाई है । सोशल मीडिया के नाम पर एक आभासी दुनिया के मकडजाल में समाज और खास तौर पर किशोर व युवा वर्ग फँसता जा रहा है । शहरीकरण के निरंतर विस्तार के साथ भावनात्मक शून्यता बढ़ी है और भौतिक समृद्धि बढ़ने के बावजूद व्यक्ति अकेला होता जा रहा है । उसे भावनात्मक संबल देने वाला कोई नहीं है । संस्थानों का भी व्यक्ति के जीवन के इस पहलू पर ध्यान नहीं है । स्कूल, कॉलेज और दफ्तरों में व्यावसायिक मानसिकता और होड़ का माहौल ज्यादा है । यह मान लिया गया है कि निजी जीवन अलग है और पेशेवर जीवन अलग । एक सभ्य समाज और लोक कल्याणकारी राज्य के लिए यह एक शर्मनाक बात है । राजेन्द्र नागदेव ने इस संग्रह के माध्यम से इसी संवेदनशील मुद्दे को टहोका है ।    
               अपने समय और समकालीन जीवन की जटिल संरचना हर कवि को बेचैन रखती है । कभी-कभी यह संरचना अपने कठिनतम रूप में सामने आती है, जहां घटित हो रहे समय और आगामी घटित होने वाले समय का तटस्थ अनुमान लगाने की अनिवार्यता बाध्य करती है । एक कठिन और विद्रूपित समय के भविष्य की कल्पना करने में नकारात्मक ऊर्जा के सक्रिय होने का खतरा हो सकता है । लगभग आधी सदी के विशाल फ़लक में फैले अपने प्रदीर्घ रचनाकाल में राजेंद्र नागदेव ने भी समय और जीवन की जटिल संरचना के कठिनतम रूप का सामना किया है, किन्तु उनके समर्थ रचनाकार ने नकारात्मक ऊर्जा को हावी नहीं होने दिया । उन की कविताओं का मूल स्वर “आशंका” का है । इस अर्थ में वे “आशंका के कवि” हैं । किन्तु वे निराशावादी नहीं हो पाये । उनकी कविताओं की आशंकाएँ समय को सचेत करती हैं ।
               संग्रह की पहली ही कविता “नदी अब नहीं बहती” प्रकृति और पर्यावरण की गंभीर चिंता को सशक्त रूप में सामने रखती है । इस कविता का एक मार्मिक दृश्य देखें :
पूरा दृश्य अभी है हवा में
पुरानी पड़ती जा रही निगेटिव फिल्म सा
धीरे धीरे कहानी समेट, किसी दिन
फिल्म भी चली जाएगी
नदी की तरह कहीं
लौट कर न आने के लिए
               अपनी आशंकाओं के साथ कवि समय से सवाल भी पूछता है इसी कविता में आगे विनाश की पीड़ा कुछ इस तरह से उभर कर सामने आती है :
पत्तों पर धरे दीप
साँझ की झलमल में अब
कहाँ सिराए जाएँगे ?
कहाँ भरेंगे मेले-?
मांझियों के स्वर कहाँ से उठेंगे ?
कहाँ तक जाएँगे ?
कहाँ से लौटेंगे ?
कहाँ तक लौटेंगे ?
कैसे लौटेंगे ?
नावें रेत पर नहीं चलती ।
               बनी-बनाई वास्तविकता और पिटी-पिटाई दृष्टि को राजेन्द्र नागदेव सिरे से खारिज करते हैं । इस कविता-संग्रह की रचनाओं के माध्यम से वे अपने साथ पाठक को एक ऐसे व्यापक संसार में प्रवेश कराते हैं जहाँ भीड़ का जंगल है जिसमें कवि ख़ुद को खो देना भी चाहता है तो पा लेना भी । वह इस जंगल में फँसा हुआ है लेकिन इस जंगल से निकलना उसे किसी राजनीतिक-सामाजिक शर्त पर स्वीकार्य नहीं है । इससे पहले कवि ने उस रात चाँद खंडहर में मिला संग्रह की कविताओं से ख़ुद के होने का अहसास जगाया था । “सुरंग में लड़की” संग्रह में वही अहसास कवि के सामने एक चुनौती बनकर खड़ा है । इसमें संकलित 51 कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि कवि ने एक व्यापकतर संसार में प्रवेश किया है । इन 51 कविताओं में से 19 कवितायें प्रकृति और पर्यावरण की कवितायें हैं उनमें से भी 8 कवितायें चिड़ियों की कवितायें हैं । यह सिर्फ संयोग नहीं हो सकता कि भारतीय वाङ्मय में चिड़ियों को लड़कियों का प्रतीक बना कर बहुत साहित्य रचा गया है और इस संग्रह में चिड़ियों पर सर्वाधिक कवितायें होने के बावजूद लड़की को शीर्षक बनाया गया है और उसके सदियों से चले आ रहे शोषण के क्रम में एक और नए आयाम की उपस्थिति तलाश की गई है । इस प्रकार समेकित अर्थों में ये कवितायें भीड़ के जंगल से निकलने की छटपटाहट और संघर्ष के प्रतिफलन की अभिलेख बन गई हैं ।
               एक रचनाकार के रूप में राजेन्द्र नागदेव यथार्थ को उसकी संपूर्णता में ग्रहण करने में विश्वास रखते हैं । वे मानते हैं कि यथार्थ की समझ को वे अनुभव और भी अधिक अर्थवान बनाएँगे जो सीधे जीवन से रचना में आविर्भूत होते हैं । वस्तुतः वह विचारशैली किसी रचनाकार का जुड़ाव यथार्थ को संपूर्णता में ग्रहण करने के लिए अनिवार्य है जो विचारशैली सामाजिक यथार्थ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करती है तथा सर्वजन के हित में उसे बदलना चाहती है । राजेन्द्र नागदेव इसी रचनात्मकता को स्वीकार करते हैं । इसीलिए आशंकाओं का कवि होते हुए भी, मुखर और वाचाल कवि होते हुए भी उनकी कविता में अर्थवत्ता, जीवंतता और सारगर्भिता है ।
               यह सर्वस्वीकार्य तथ्य है कि जनमानस में वही कवि जीवंत होता है जिसकी कविता कठिन समय में सहानुभूति दे, सहगामी बने और संकट से बाहर निकलने का रास्ता दिखलाये । कविता दरअसल व्‍याख्‍या नहीं मांगती, वह ख़ुद को अनुभव किए जाने का अनुरोध करती है । राजेन्द्र नागदेव ऐसे ही कवि हैं जिनकी कविता में गहन संप्रेषणीयता और व्यापक अनुभव प्रचुर मात्रा में बिखरा पड़ा है । उन की कविता, आमजन की पक्षधर है, इसीलिए वे शब्दों को अपने सृजनकर्म से एक रचनात्मक अनुभव देना चाहते हैं । उनकी कविता में समकालीन समाज के निम्न-मध्यवर्गीय जन की पीड़ा को प्रमाणिक स्वर और गहन मार्मिकता मिलती है । इसके साथ ही उनकी कविता व्यवस्था की निष्ठुरता, और छल के विरुद्ध मुखर हो कर असहमति दर्ज़ कराती है । उन्होने प्रतीकों, बिंबों और मिथकों का भरपूर प्रयोग किया है । साधारण बोलचाल के शब्द उनके स्थायी सहचर हैं । कहीं कहीं लोकभाषा के शब्दों का बखूबी प्रयोग किया गया है । कविताओं की प्रत्येक पंक्ति का सीधा संवाद भी चलता रहता है । इस संवाद के द्वारा ही कविता अपने विशिष्ट अर्थ अपने पाठक को देती जाती है । यही कारण है कि उनकी कविता किसी विशेष खांचे में सिमट कर नहीं आती, बल्कि जीवन और मनुष्य से जुड़े हर सवाल का जवाब बन कर खुलती जाती है । वे  कविता का कविताकरण नहीं करते, बल्कि उसे व्यापक अर्थों में स्वीकृति दे कर उसे मानवीय संदर्भों से जोड़ते हैं । इन सभी अर्थों में “सुरंग में लड़की” कविता संग्रह की कवितायें विचार का एक नया वितान निर्मित करती हैं जहां तमाम आशंकाओं के बावजूद एक धुंधली सी उजास की कोर, एक बड़ी उम्मीद बँधाती है ।
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