बच्चन जी के एक गीत की पंक्ति है- "जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला........" सच में जीवन की आपाधापी में कितना कुछ बहुत खूबसूरत पीछे छूट जाता है और हम इस गलत-फहमी में रहे आते हैं कि हम बड़े हो रहे हैं............ आज दोपहर को घर वापस आते समय मुझे किसी ने जैसे मौन आवाज़ दी... मैं ठिठक गया. मैंने देखा मेरे सामने एक बरगद का भरपूर जवान वृक्ष खडा था. यह पेड़ मेरी कालोनी की चारदीवारी के बाहर है और पिछले लगभग पंद्रह साल से मुझे रोज़ आते-जाते देख रहा है. कभी कभी मैंने भी व्यस्त आँखों से उसे देखा होगा. पिछले कई बरसों से मेरी पत्नी नीतिका वट-सावित्री के व्रत के दौरान उसे कच्चे सूत के धागे से बांधती आ रही है...... वो वृक्ष ज़रूर ये सोच के हँसता होगा कि जिसके लिए नीतिका ये सब कर रही है वो तो उस जैसे ही किसी वट-वृक्ष का बाल सखा है...... बहरहाल आज आपाधापी शायद कुछ कम रही होगी इसीलिए उसकी पुकार मुझे सुनाई दे गई और मैं स्कूटर रोक कर खड़ा हो गया. मेरी अपने बालसखा से कुछ बातें हुईं..... कुछ उलाहने और कुछ पुरानी यादों कि कौंध.......... मैं उसे "अभी आया" कह कर अपने घर पहुंचा. मेरे बच्चे आठ साल की बिटिया मौली और चार साल का बेटा चारू घर के बाहर अपने साथियों के साथ खेल रहे थे. मैंने सभी बच्चों को इकट्ठा किया और पूरी फौज के साथ अपने बालसखा के पास चल पड़ा........ अगले दो घंटे हम सभी ने पेड़ से बेर तोड़े (हमारे यहाँ बुंदेलखंड में महुआ और बेर बहुतायत से होते है... यहाँ कहावत मशहूर है- "महुआ मेवा बेर कलेवा"........कलेवा=सुबह का नाश्ता), बीने, बटोरे, खाए , और फिर पहुंचे वट-वृक्ष के पास......... वहां हमारी फौज ने क्या किया ये देखिये-
बरगद की जटाओं से झूलती हुई मौली
बरगद की जटाओं से झूलता हुआ चारू
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