गुरुवार, 26 अप्रैल 2018


प्रवाह के विपरीत, उद्गम की खोज में गतिमान शब्दों की किश्ती
(संदर्भ : “प्रजापति तथा अन्य कवितायें” रचनाकार – सुधीर देशपांडे)
समीक्षक : आनंदकृष्ण, भोपाल
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आज फिर शुरु हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी सी सरस सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर कर शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी सी बच्ची आयी
किलक मेरे कंधे पर चढ़ी
आज आदि से अंत तक एक पूरा गान किया
आज जीवन फिर शुरु हुआ ।
                                 (“आज फिर शुरू हुआ” - रघुवीर सहाय)
      सुधीर देशपांडे बहुत लंबे समय से, लगभग 35 वर्षों से कवितायें लिख रहे हैं । किन्तु उनकी कविताओं का पहला संकलन “प्रजापति और अन्य कवितायें” अब आया है । पुस्तक के प्रकाशन के मामले में सुधीर को देर ज़रूर हुई है किन्तु उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह सुखद आश्वस्ति होती है कि किशोरावस्था में भावनाओं के उद्दाम ज्वार को जिस तरह उन्होने सामाजिक सोद्देश्यता की मौलिक अभिव्यक्ति का जरिया बनाया था, वही जज़्बा आज भी उनकी कविता में मिलता है । उन की कविता युगीन सरोकारों की नींव पर ही खड़ी है । वे कथ्य की व्यापकता, दृष्टि के उन्मुक्त विस्तार, ईमानदार अनुभूति के आग्रह, सामाजिक एवं व्यक्तिगत पक्ष के संश्लेषण और रोमांटिक भावबोध के साथ नवीन आधुनिकता से संपन्न भाव-बोध से युक्त एक नया शिल्प गढ़ते हैं । कविता में गद्य की भाषा का सफलतापूर्वक उपयोग, वादमुक्त वैचारिकता, व्यापक स्तर पर स्वाधीन चिंतन की प्रतिष्ठा, अनुभूतियों का बारीक चित्रण, नए प्रतीकों-बिम्बों-मिथकों के माध्यम से समग्र मानववादी धरातल का निर्माण, नया सौंदर्यबोध, और नए मनुष्य की प्रतिष्ठा सुधीर की कविता की विशेषताएं हैं ।
      समाज की अनुभूति कवि की अनुभूति बन कर ही कविता में व्यक्त हो सकती है । सुधीर की कविता इस वास्तविकता को स्वीकार करती है और ईमानदारी से उसकी अभिव्यक्ति करती है । अनुभूति क्षण की हो या समूचे काल की, किसी सामान्य व्यक्ति की हो या विशिष्ट पुरुष की, आशा की हो या निराशा की वह सब सुधीर की कविता का कथ्य है । अपनी कविता के वितरित कैनवास में उन्होने मानव को उसके समस्त सुख-दुखों, विसंगतियों और विडंबनाओं को उसके परिवेश सहित स्वीकार किया है। इसमें न तो छायावाद की तरह समाज से पलायन है और न ही प्रयोगवाद की तरह मनोग्रंथियों का नग्न वैयक्तिक चित्रण या घोर व्यक्तिनिष्ठ अहंभावना । उनकी कविता ईमानदारी के साथ व्यक्ति की क्षणिक अनुभूतियों को, उसकी समस्त पीड़ाओं को संवेदनापूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करती है। संग्रह की प्रतिनिधि कविता “प्रजापति” में वे कहते हैं :
सचमुच प्रजापति ही था वह
जो देता रहा माटी को आकार
जिसके श्रम से सिंचित धारा
भर आंच में ताप कर भी
करती रही
अपने आप को कृतज्ञ
और वह था कि
धरा के आभार मानता रहा ।                              (प्रजापति : पृष्ठ 2)
      सुधीर की कविता में जीवन के प्रति आस्था और जीवन को इसके पूर्ण रूप में स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा है । सुधीर ने जीवन को उसके अनंत रूप में देखा है । इसमें कोई सीमा रेखा निर्धारित नहीं की इसलिए उनकी कविता अपने कथ्य और दृष्टि में विस्तार पाती है । वे पेशे से शिक्षक है इसलिए उनके पास अभिव्यक्ति का विस्तृत मनोवैज्ञानिक फैलाव है । उनकी कविता पुराने मूल्यों और प्रतिमानों के प्रति विद्रोही प्रतीत होती है और इनसे बाहर निकलने के लिए व्याकुल रहती है । विचारधारा से अप्रभावित रह कर और अधिक व्यापक मानवीय संदर्भ, नकी  समस्याएं और विज्ञान के नए आयामों से जुड़ कर सुधीर की कविता ने अपना विषय विस्तार किया है । आम आदमी जिस पीड़ा को झेलता है,औसत आदमी(मध्य-वर्गीय) जिस जीवन को जीता है,वही लघु मानव इन कविताओं का नायक बना है और इसलिए सुधीर की कविता उस लघु मानव की पीड़ा, अभाव और तनाव झेलती है । पिता को केंद्र में रख कर सुधीर ने जो कवितायें लिखी हैं उनमें इसी लघु मानव का प्रामाणिक चित्रण मिलता है । इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक सहज ही उस लघु मानव के साथ एकाकार हो जाता है । इनमें “रामबाबू (पिता को)”, “पिता के बाद पिता”, “पिता-1”, “पिता-2” “बच्चे बड़े हो रहे हैं”, विशेष रूप से दृष्टव्य हैं । “पिता-1” कविता में वे कहते हैं :
पिता कविता रचते हैं खुद भी
बावजूद इसके कविता से बहुत दूर रहते हैं ।
जैसे रहते हैं अपने में ही
पर अपने से दूर
   माँ पर कविता लिखते कवि
   पिता को भूल जाते हैं अक्सर
         या चाह कर भी
         नहीं बताना चाहते
         अपने बारे में
               पिता लगे रहते हैं
               चुपचाप अपने काम में ।                     (“पिता-1” पृष्ठ 53)
      सुधीर की कविता मानवतावादी है, पर इसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है । उनकी यथार्थ दृष्टि मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में परिभाषित करते हुए उसकी उलझी हुई संवेदनात्मक चेतना के विभिन्न स्तरों तक अनुभूत परिवेश की व्याख्या करने की कोशिश करती है। वे मनुष्य को किसी कल्पित सौन्दर्य और वायवीय मूल्यों के आधार पर नहीं, बल्कि उसके तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करते हैं । इस बिन्दु पर उनकी कविता मानव मूल्यों की पैरोकार बन कर सामने आती है । एक उदाहरण देखें :
सोच नहीं पाता
तुम्हारी चिट्ठियों के जवाब में क्या लिखूँ ?
कैसे लिखूँ कि
फिक्र मत करो
यहाँ सब ठीक है
जबकि अभी काल निद्रा में सोये हैं तीन जने ।    (चिट्ठियों के जवाब में क्या लिखूँ : पृष्ठ 32)
      सुधीर पेशे से शिक्षक है । उन्होने शिक्षा जगत की विसंगतियों पर भी बेबाक कलम चलाई है । शिक्षा से जुड़े बिंबों को उन्होने सामयिक और युगीन यथार्थ से जोड़ा है । स्वीकारोक्ति, शिक्षा में बजट, बच्चियाँ जो नहीं जातीं स्कूल, आखर, कविताओं में उनका यह कौशल निखर कर सामने आया है । कुछ विशिष्ट कविताओं में मैं सबसे पहले वरिष्ठ कवि राजेश जोशी पर लिखी गई छोटी सी कविता “राजेश जोशी” का उल्लेख करना चाहूँगा । इस कविता में सुधीर का भाषायी सामर्थ्य और सौष्ठव प्रतिबिम्बित होता है । एक अन्य कविता में समकालीन कवि की कविता पढे जाने का उल्लेख है जो सुधीर के अध्ययन के प्रति निष्ठा का रूपांकन करता है ।  
      सुपरिचित आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास के संबंध में कहा है – “समकालीन कविता, जीवन और गरबीली गरीबी का काव्य है, जिसमें व्यक्ति की चेतना जीवन के सारे व्यापारों में,खेत-खलिहान में, नगर-गांव में व्यापक धरातल पर व्यक्ति की अनुभूतियों को स्वर देती है । सुधीर ने अपनी कविताओं में अपने शहर, अपने परिवेश, अपने घर परिवार, को बहुत स्नेह और आत्मीयता से याद किया है । प्रसंगतः मैं यहाँ उनकी कविता “तीन पुलिया” का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहता हूँ जिसमें तीन पुलिया पर बाढ़ के दृश्य को देखने वाले तीन दोस्त निकले हैं । इस कविता को पढ़ते हुए मैं लगभग 32-33 वर्ष पूर्व के खंडवा में पहुँच गया जहां कवि बनने की आश्वस्ति के साथ तीन किशोर दोस्त, आनंद कृष्ण, सुधीर देशपांडे और तीसरा शायद विवेक श्रीवास्तव, या अजय उपाध्याय या विवेक पुरकर एक ही साइकिल पर सवार हो कर तीन पुलिया पहुंचे थे और वहाँ किनारे खड़े हंसी ठट्ठा कर रहे थे । कविता में बाढ़ का दृश्य, साइकिल, तीनों दोस्त और उनका हंसी-ठट्ठा और उसके माध्यम से समय की नब्ज़ को टटोलने की कोशिश वास्तविक है जिसे सुधीर सपाटबयानी से साफ बचा कर ले गए हैं ।
      समेकित रूप में सुधीर की कविता वास्तव में व्यक्ति की पीड़ा की कविता है । इधर की समकालीन कविता में जहां व्यक्ति के आंतरिक तनाव और द्वंद्वों को वैयक्तिक रूप से व्याख्यायित किया गया है वहीं सुधीर की कविता में वह व्यापक सामाजिक यथार्थ से संपृक्त होता है । अपने अनुभव के सत्य को उन्होने बाहर के संसार के सत्य से जोड़ा है इसीलिए उनकी कविता के सामाजिक सरोकार काफी गहरे हैं और उनका अनुभव का दायरा काफी विस्तृत हो जाता है ।  
      सुधीर की कविता में छंद के प्रति आग्रह नहीं है इसके बावजूद उसमें सहज प्रवाह और गति दिखाई पड़ती है । नाद की ध्वनियाँ वहाँ एक निजी संगीत निर्मित करती है और अर्थ के धरातल पर वहाँ लय के समुच्चय की गूंज उभरती है । ये कवितायें संवाद करती हैं और इनकी मुखरता ही इनका सामर्थ्य है । सुधीर की दृष्टि की व्यापकता, उनसे सार्थक कविताओं की उम्मीद जगाती है और यह संग्रह इस उम्मीद को पूरा करने की दिशा में पहला चरण है । अज्ञेय की कविता “अच्छा खंडित सत्य” की इन पंक्तियों के साथ सुधीर को शुभकामनायें दी जा सकती हैं :
अच्छा 
खंडित सत्य 
सुघर नीरन्ध्र मृषा से
अच्छा 
पीड़ित प्यार सहिष्णु 
अकम्पित निर्ममता से। 

अच्छी कुण्ठा रहित इकाई
साँचे ढले समाज से  
अच्छा 
अपना ठाठ फ़क़ीरी
मंगनी के सुख साज से ।

अच्छा 
सार्थक मौन 
व्यर्थ के श्रवण मधुर भी छंद से ।
अच्छा 
निर्धन दानी का उघड़ा उर्वर दुख 
धनी सूम के बंझर धुआँ घुटे आनंद से ।

अच्छे 
अनुभव की भट्टी में तपे हुए कण दो कण
अन्तर्दृष्टि के
झूठे नुस्खे वाद, रूढि़, उपलब्धि परायी के प्रकाश से 
रूप-शिव, रूप सत्य की सृष्टि के।
                (अच्छा खंडित सत्य- "अरी ओ करुणा प्रभामय" : 'अज्ञेय')
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कृति : प्रजापति तथा अन्य कवितायें (कविता)

रचनाकार : सुधीर देशपांडे
प्रकाशक : आरंभ प्रकाशन, खंडवा
मूल्य : 125 रुपये

 

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