रविवार, 5 सितंबर 2010

मेरी पहली लघुकथा, जिसे मैंने १९८५ की एक मूसलाधार बारिश भरी शाम में लिखा था.............
अनुत्तरित प्रश्न
संकोच से झुका सिर स्वीकृति में हिला और एक मजबूत बालदार हाथ ने पैंट की जेब से कुछ नोट निकाल कर सामने बैठी धूर्त व मक्कार आंखों के आगे कर दिए । शैतानी चमक के साथ आंखों ने उन नोटों को झपट कर अपने लड़खड़ाते पैरों को बाहर जाने का आदेश दे दिया ।

- दरवाजा चमरौधे सी आवाज करता बंद हुआ और कुछ क्षणों के बाद पुनः खुला - अपने पीछे एक पूर्ण युवा शरीर के अस्तित्व को विमुक्त करता हुआ - सा -
- शरीर के अन्दर आते ही दरवाज़ा अपनी आदत के अनुसार फिर से बंद हो गया..........

- शरीर मशीनी अंदाज़ में अनावृत्त हुआ तब तक सिर का संकोच भी पर्याप्त समाप्त हो चुका था । उसने शरीर को लोलुप दृष्टि से घूरते हुए बातें करना प्रारंभ किया ।

‘‘तुम्हारा नाम - ?’’
‘‘नाम जानकर क्या करोगे ? जल्दी काम निबटाओ जिसके लिए जेब हल्की की है ।’’

‘‘.................... । ’’ कुछ क्षणों का सन्नाटा -

‘‘ तुम यह काम छोड़ क्यों नहीं देतीं - ?’’
‘‘तो क्या होगा ? पेट फिर भी रोटी मांगेगा । फिर यहां नहीं तो कहीं और ...... । ’’
‘‘शादी ............ ?’’
‘‘किससे ............ ?’’
‘‘मुझसे । ’’ सिर पूरे आत्मविश्वास से बोला ।
- अनावृत्त जिस्म का रोयां रोयां व्यंग्य से खिलखिला उठा - ‘‘ शादी तुम करोगे किससे- ? इससे .. ? इससे .... ? या इससे ....... ?’’ जिस्म ने जैसे अपने सारे अंगों की नुमाइश लगा दी ।

- सिर हत्प्रभ रह गया । जिस्म ने खिलखिलाते हुए ही सिर को अपनी ओर खींच लिया और बैड-स्विच आफ कर दिया ।

- सरसराहटें .......... ।
- गुरगुराहटें ........... ।
- गरमाहटें .............. ।

- सन्नाटे में गूंजते झींगुरों की आवाज़-सी सांसें ............ ।
- आवाज़ें दर आवाज़ें -

- सिर चलने को ही था तभी जिस्म से ठंडी आवाज़ उभरी- ‘‘शादी करोगे मुझसे - ?’’

- सिर थम गया । उसके सामने पूरा समाज, परिवार, मित्रमंडली घूम गई और इन सबके बोझ से वह धीरे-धीरे झुकता गया । अचानक वह बिना कुछ बोले बाहर की ओर तेजी से बढ़ गया ।

....... उसका पीछा कर रही है जिस्म की तीखी धारदार खिलखिलाहट - अपने अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर पाने के लिए ।

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