पुराने कागजात खंगालने में मिला एक बहुत पुराना गीत भेज रहा हूँ जिस पर तारीख पडी है- १७-११-१९९१ स्थान- भोपाल रेलवे स्टेशन (कोई इंटरव्यू वगैरह देने गया होऊंगा) फिर उसे घर आ कर एडिट किया होगा. इस पर मेरे पूरे हस्ताक्षर हैं जो मैं बहुत कम करता हूँ. ये गीत पूर्णतः अप्रकाशित-अप्रसारित और गुमनाम सा रहा है.
गीत: शब्द वही हैं ....
गीत: शब्द वही हैं ....
शब्द वही हैं, बदल गई है केवल अर्थों की भाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
हवा चूमती थी पागल सी रेतीले नदिया तट को,
जाने किसने झटका था चंदा की आवारा लट को । झूम-झूम नर्तन करते थे, नीलगिरि के उंचे पेड़-
बगिया मुस्काई थी सुन-सुन, कर अनजानी आहट को।
अनगिन बिखरे तारों का शामें हंस स्वागत करती थीं ।
नील, निरभ्र, शून्य नभ में नित चटकीले रंग भरती थीं।
पीड़ा के बादल ने आंसू से लिख डाली परिभाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
जिस दिन बहुत दूर से हमने झलक तुम्हारी पाई थी ।
नागपाश जैसी वेणी में बंध-हमने आकाश छुआ-
तन-मन में बिजली सी कौंधी-यौवन की अंगड़ाई थी।
श्वासों के संगम में हमको चेतनता के रंग मिले ।
उड़ते फिरते वनपाखी-से, रूप तुम्हारे संग मिले ।
मन के शिलालेख पर जाने किसने है यह दर्द तराशा ?
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
वीराने जीवन को क्षण भर साथ तुम्हारा मिल जाए ।
भटक रही लहरों को जैसे एक किनारा मिल जाए । नव पल्लव का स्वागत करने मचल उठें सारी कलियां-
पंखुरियों पर प्रणय गीत हो ऐसा फूल कहीं खिल जाए।
पूनम की रातों में हम-तुम साथ रहें-बस पास रहें ।
और तुम्हारी पलकों में ही खिले खिले मधुमास रहें ।
इस निर्मम दुनिया में मैंने की जब सुख की अभिलाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
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