मेरी पिछली ग़ज़ल में रदीफ़ "दो" था और इस ग़ज़ल में भी यही रदीफ़ है. दोनों "दो" के अर्थ अलग अलग हैं. बताइयेगा की इस तज़रबे में मैं कितना कामयाब रहा- पेशे-नज़र है ये ग़ज़ल-
ग़ज़ल : कोई हमदम या...............
कोई हमदम या कोई कातिल दो।
ग़ज़ल : कोई हमदम या...............
कोई हमदम या कोई कातिल दो।
मेरी कश्ती को एक साहिल दो.
अब तो तन्हाइयां नहीं कटतीं-
अब तो तन्हाइयां नहीं कटतीं-
दे रहे हो तो दोस्त-महफ़िल दो।
चांदनी में झुलस रहा है बदन
अब अमावस की रात झिलमिल दो।
उनकी मासूमियत का क्या कहना-?
उनकी मासूमियत का क्या कहना-?
दिल मिरा ले के कहें- "अब दिल दो."
मुझको बख्शा है ग़र भटकना, तो-
मुझको बख्शा है ग़र भटकना, तो-
मेरे पांवों को अब न मंजिल दो।
दोस्ती कर के देख ली मैंने-
एक दुश्मन तो मेरे काबिल दो-!
जिल्लतें, वस्ल, दर्द, तन्हाई-
जिल्लतें, वस्ल, दर्द, तन्हाई-
कुछ तो मेरी वफ़ा का हासिल दो.
होली की अनंत अशेष शुभकामनाएं...........
होली की अनंत अशेष शुभकामनाएं...........