शनिवार, 17 जनवरी 2009

एक ग़ज़ल:इक मुसाफिर ने.....

एक ग़ज़ल प्रस्तुत है-

इक मुसाफिर ने कारवां पाया।

कातिलों को भी मेहरबां पाया.

मेरे किरदार की शफाक़त ने-

हर कदम एक इम्तिहाँ पाया।


जुस्तजू में मिरी वो ताक़त है-

तुझको चाहा जहाँ-वहाँ पाया।


वो जो कहते हैं-मिरे साथ चलो

उनके क़दमों को बेनिशां पाया।


इक सितारा निशात का टूटा-

दर्द में हमने आसमां पाया.

बुधवार, 14 जनवरी 2009

एक ग़ज़ल


सूखते होंठों पे हमको तिश्नगी अच्छी लगी।

जिंदगी जीने की ऐसी बेबसी अच्छी लगी।

इस नुमाइश ने दिखाए हैं सभी रंजो-अलम-

इस नुमाइश की हमें ये तीरगी अच्छी लगी

हैं वसीले और भी, फितरत-बयानी के, लिए

पर हमें नज्मो-ग़ज़ल, ये शाइरी अच्छी लगी।

आलिमों ने इल्म की बातें बताईं हैं बहुत-

पर हकीकत में हमें दो-चार ही अच्छी लगी।

ख्वाहिशें सबकी कभी पूरी नहीं होतीं मगर-

जो तुम्हारे साथ गुज़री, जिंदगी अच्छी लगी।

आज इन हालत में भी हैं मेरे हमराह वो-

कुछ चुनिन्दा लोग- जिनको रोशनी अच्छी लगी।