शुक्रवार, 6 मार्च 2009

एक ग़ज़ल : "रोक पाएंगीं क्या ........."

रोक पाएंगीं क्या सलाखें दो-?
जब तलक हैं य' मेरी पांखें दो ।

जिसने सबको दवा-ए-दर्द दिया-
आज वो माँगता है- साँसें दो ।

चाह कर भी निकल नहीं सकता-
मुझको घेरे हुए हैं बाँहें दो ।

वो इबादत हो या की पूजा हो-
एक मंजिल है और राहें दो ।

मुझको कोई बचा नहीं पाया-
मेरी कातिल- तुम्हारी आँखें दो ।

या तो आंसू मिलें, या तन्हाई-

एक जुर्म की नहीं सजाएं दो ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया आनन्द जी. भाव बेहतरीन हैं.

    कल से फोन पर आप तक पहुँचने का प्रयास कर रहा हूँ.

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  2. या तो आंसू मिलें, या तन्हाई-
    एक जुर्म की नहीं सजाएं दो
    bahut sundar sir

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