शनिवार, 25 जुलाई 2009

पुराने कागजात खंगालने में मिला एक बहुत पुराना गीत भेज रहा हूँ जिस पर तारीख पडी है- १७-११-१९९१ स्थान- भोपाल रेलवे स्टेशन (कोई इंटरव्यू वगैरह देने गया होऊंगा) फिर उसे घर आ कर एडिट किया होगा. इस पर मेरे पूरे हस्ताक्षर हैं जो मैं बहुत कम करता हूँ. ये गीत पूर्णतः अप्रकाशित-अप्रसारित और गुमनाम सा रहा है.

गीत: शब्द वही हैं ....


शब्द वही हैं, बदल गई है केवल अर्थों की भाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
हवा चूमती थी पागल सी रेतीले नदिया तट को,
जाने किसने झटका था चंदा की आवारा लट को ।
झूम-झूम नर्तन करते थे, नीलगिरि के उंचे पेड़-
बगिया मुस्काई थी सुन-सुन, कर अनजानी आहट को।


अनगिन बिखरे तारों का शामें हंस स्वागत करती थीं ।
नील, निरभ्र, शून्य नभ में नित चटकीले रंग भरती थीं।

पीड़ा के बादल ने आंसू से लिख डाली परिभाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।

जिस दिन बहुत दूर से हमने झलक तुम्हारी पाई थी ।
जिस दिन हमको देख तुम्हारी आंखें भी शरमाई थीं ।
नागपाश जैसी वेणी में बंध-हमने आकाश छुआ-
तन-मन में बिजली सी कौंधी-यौवन की अंगड़ाई थी।

श्वासों के संगम में हमको चेतनता के रंग मिले ।

उड़ते फिरते वनपाखी-से, रूप तुम्हारे संग मिले ।


मन के शिलालेख पर जाने किसने है यह दर्द तराशा ?
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
वीराने जीवन को क्षण भर साथ तुम्हारा मिल जाए ।
भटक रही लहरों को जैसे एक किनारा मिल जाए ।
नव पल्लव का स्वागत करने मचल उठें सारी कलियां-
पंखुरियों पर प्रणय गीत हो ऐसा फूल कहीं खिल जाए।

पूनम की रातों में हम-तुम साथ रहें-बस पास रहें ।

और तुम्हारी पलकों में ही खिले खिले मधुमास रहें ।


इस निर्मम दुनिया में मैंने की जब सुख की अभिलाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।

............

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

गीत: चाहे ना हो ........

चाहे ना हो साथ तुम्हारा,
या हाथों में हाथ तुम्हारा ।
मेरी सांसें तुमको प्रतिक्षण साथ रखेंगी याद बना कर ।।

बचपन की मधुरिम किलकारी,
निश्छल, अर्थहीन सी गारी ।
पल में हास, अश्रु पल भर में
रोना, रूठ मनौवल प्यारी ।
चढ़ना लपक-लपक पेड़ों पर,
और दौड़ना पथ मेड़ों पर ।
कच्ची बेर-बिही का संग्रह
विस्मृत करता दुनिया सारी ।
चाहे बिछड़ा दुख दिखला दो,
या मिलने का सुख सिखला दो ।
अधरों का कंपन खोलेगा, भेद शूल के फूल सजा कर ।।

प्रणय पाठ पढ़ते थे हम-तुम,
बटुक बने घन गुल्मों में गुम ।
आंचल ढरका तो तुम सहमीं
छुई-मुई सी बैठीं गुमसुम ।
लज्जित, मुस्काईं तुम जितनी
मेरी प्रीत बढ़ी तब उतनी ।
और तुम्हारे माथे बरबस-
बिखर-बिखर सा जाता कुमकुम ।
चाहे तुम वे दिन बिसराओ,
या आकर पायल छनकाओ ।
स्मृतियों के सघन कुंज में, मैं बैठा हूं नयन बिछा कर ।।

हाय ! अधूरी मेरी पाती,
मौन बना अब मेरा साथी ।
वर्षा की मदमाती रिमझिम
रोती है, फिर भी बहलाती ।
गीत अबोले से लगते हैं,
जले, फफोले से लगते हैं ।
और तुम्हारी सुधियां मेरे-
भीतर गहरे आती-जातीं ।
चाहे आंखें मुंदती जाएं,
या सपनों के ढेर लगाएं ।
आ पहुंचा है समय विदा का, देखो अपनी नजर बचा कर ।।
* * * * * * * *

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

समलैंगिकता और समाज
समलैंगिकता को कानूनी जामा मिलने के बाद हर आम आदमी के मन में उठने वाले सवालों के उत्तरों में आज के उत्तर -आधुनिक हो रहे समाज की कड़वी सच्चाई और घिनौना चेहरा छुपा है.
हमारी प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में कभी कभी बहुत विद्रूपित और अव्यावहारिक बातें देखने मिलती हैं. समलैंगिकता का मसला भी ऐसा ही मसला है. इस फैसले के आने के बाद समाज के जिस "विशेष वर्ग" को राहत पहुंचाने की बात की जा रही थी उसकी प्रतिक्रया तो नहीं मालूम, पर सामान्य रूप से स्कूल कॉलेज के छात्रों में हंसी-मज़ाक, एक दुसरे को छेड़ने और निरर्थक वार्तालाप के विषय के रूप में नया मसाला ज़रूर मिल गया है. समलैंगिकता एक महामारी के रूप में फैलने की चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं पर मुझे लगता है की ये एक महामारी को फैलाने में मददगार होगी. वह महामारी है-ऐड्स. इस फैसले के साथ ऐड्स की आशंकाओं को नज़र-अंदाज़ किया गया है.
हमारे देश में गंभीर और रोंगटे खड़े करने वाली समस्याओं के आसान, मासूम से, और घोर अवैज्ञानिक-अव्यावहारिक समाधान सुझाए जाते हैं. पिच्छले कई वर्षों से ऐड्स की रोकथाम के लिए प्रसारित होने वाले सरकारी विज्ञापन कंडोम के विज्ञापन अधिक लगते हैं. स्थिति ये है की स्कूली बच्चे भी ऐड्स की भयावहता से बेखबर होते हुए कंडोम की सुरक्षा से निश्चिंत हैं. नतीजा वही है जो होना चाहिए था- तमाम प्रयासों के बा-वजूद ऐड्स के रोगियों की संख्या में तेज़ी से बढोत्तरी.
ऐड्स के विज्ञापन में कंडोम की वकालत करने वाले मूर्खों ने देश की स्वस्थ, जीवंत और संभावनाशील पीढी को किस गर्त में धकेल दिया है-!
ऐड्स के प्रति जागरूकता लाने के पक्षधर यदि भारतीय संस्कृति की चारित्रिक शुचिता को पढ़-समझ लेते और उसे व्यावहारिक बनाते तो आज हम ऐड्स के भय से मुक्त स्वस्थ समाज में रह रहे होते-!
और ..........................
उस पर नीम चढा करेला ये की समलैंगिकता भी अब गैर-कानूनी नहीं ....... यानी विदेशी ३-एक्स फिल्मों और इन्टरनेट से प्राप्त ज्ञान के आधार पर नयी रोमांचकता की तलाश में बीमार समाज के निर्माण की गति को तीव्र करने की सार्थक पहल-!!!!!!!
समलैंगिकता को भले ही गैर-कानूनी न माना जाए पर ये अ-सामाजिक और अप्राकृतिक तो है ही......... इसे एक बुराई के रूप में ही देखा जाना चाहिए. इसे कितना ही वैधानिक बनाने की कोशिश की जाए पर समय और समाज इसके पक्ष में कभी नहीं होगा.
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सोमवार, 15 जून 2009

इन दिनों थोड़ी फुर्सत है तो कुछ पुराने कागजात खंगाल रहा हूँ। पुरानी ग़ज़लें और गीत और ......... बहुत कुछ अपनी स्मृतियों के साथ फिर से निकल-निकल कर आ रहे हैं। ........ (चंद तस्वीरे-बुतां, चंद हसीनों के खुतूत, बाद मरने के मिरे घर से ये सामां निकला।)
एक और ग़ज़ल भेज रहा हूँ। इस पर तारीख पड़ी है- 22-09-1991. आप सबकी प्रतिक्रया का इंतज़ार रहेगा.....

एक ग़ज़ल : बाद मुद्दत के .......

बाद मुद्दत के इक हंसी देखी।
एक मजलूम की खुशी देखी।
उनको देखा तो यूँ लगा मुझको-
जैसे बर-बह्र शाइरी देखी।
दिल के हाथों ही हम हुए मजबूर
हमने ऐसी भी बेबसी देखी।

है सितारा बुलंद किस्मत का-
उनकी आँखों में बेखुदी देखी।

नींद- तेरा बड़ा है शुकराना
ख्वाब में हमने आशिकी देखी।

यूँ हुआ इल्म मुक़म्मल अपना-
हमने जब प्यार-दोस्ती देखी।
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सोमवार, 8 जून 2009

"मंच" पर वज्रपात का दिन

आज का दिन "मंच" पर वज्रपात का दिन है। आज की सुबह ह्रदय द्रावक समाचार लाई है. एक सड़क दुर्घटना में मंच के लोकप्रिय कवि ओम प्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड सिंह गुज्जर का निधन हो गया और ओम व्यास तथा ज्ञानी बैरागी गंभीर रूप से घायल हुए हैं.


एक शोक सूचना और- वरिष्ठ रंग-कर्मी हबीब तनवीर का भोपाल में ८६ वर्ष की उम्र में निधन हो गया. रंगमंच की एक महत्वपूर्ण कठपुतली को जगत-नियंता ने वापस बुला लिया.हबीब तनवीर जी, आदित्य जी, नीरज पुरी जी, और लाड सिंह गुज्जर जी को श्रद्धांजलि और ओम व्यास तथा बैरागी जी शीघ्र स्वस्थ हों यही कामना.

एक ग़ज़ल : "गीत गाते रहे.........."

आज कुछ पुराने कागजात खंगालते वक्त एक पुरानी रचना मिली जिस पर तारीख पड़ी थी- १५ जनवरी १९९२। इसे पढ़ते हुए कुछ पुरानी स्मृतियाँ भी उछल-कूद कर गईं। इसे केवल मेरी प्रारम्भिक रचनाओं के रूप में देखें.

गीत गाते रहे गुनगुनाते रहे।

रात भर महफिलों को सजाते रहे।

सबने देखी हमारी हंसी और हम-

आंसुओं से स्वयं को छुपाते रहे।

सुर्ख फूलों के आँचल ये लिख जायेंगे-

हम बनाते रहे वो मिटाते रहे।

रेत पर नक्शे-पा छोड़ने की सज़ा

उम्र भर फासलों में ही पाते रहे।

सबने यारों पे भी शक किया है मगर-

हम रकीबों को कासिद बनाते रहे।

हमको आती है यारो! ये सुनकर हंसी-

"वो हमारे लिए दिल जलाते रहे। "

नीली आंखों के खंजर चुभे जब उन्हें-

दर्द में "कृष्ण" के गीत गाते रहे।

सोमवार, 1 जून 2009

ग्रीष्म सप्तक

भीषण गर्मी पड़ रही है ......... इस मौके पर सात दोहे प्रस्तुत हैं। ये सभी दोहे अपने आप में स्वतंत्र हैं किन्तु समेकित रूप में ये ग्रीष्म ऋतु के एक पूरे दिन का चित्रण करने का प्रयास हैं...... प्रयास की सफलता का मूल्यांकन आप करेंगे ना-??????
दोहे निकल पड़ा था भोर से पूरब का मजदूर।
दिन भर बोई धूप को लौटा थक कर चूर।

पिघले सोने सी कहीं बिखरी पीली धूप।
कहीं पेड़ की छाँव में इठलाता है रूप।

तपती धरती जल रही, उर वियोग की आग।
मेघा प्रियतम के बिना, व्यर्थ हुए सब राग।

झरते पत्ते कर रहे, आपस में यों बात-
जीवन का यह रूप भी, लिखा हमारे माथ।

क्षीणकाय निर्बल नदी, पडी रेत की सेज।
"आँचल में जल नहीं-" इस, पीडा से लबरेज़।

दोपहरी बोझिल हुई, शाम हुई निष्प्राण।
नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे वितान।

उजली-उजली रात के, अगणित तारों संग।
मंद पवन की क्रोड़ में, उपजे प्रणय-प्रसंग।

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शुक्रवार, 29 मई 2009

चार मिसरे

चार मिसरे समाद फरमाएं-


हमने जो ख्वाब थे सजा डाले-

देख लो-वक़्त ने मिटा डाले।

आरजू अब सुपुर्दे-खाक करो-

मैंने सारे वो ख़त जला डाले.

बुधवार, 27 मई 2009

चार मिसरे-

चार मिसरे-

मैं तुम्हारे ख़्वाबों का इक जहां बनाऊंगा।

प्यार के मुरीदों का कारवां बनाऊंगा।

मुझको तेरी साँसों की फूल सी छुवन की कसम-

लौट के अगर आया- आसमां बनाऊंगा.

रविवार, 8 मार्च 2009

मेरी पिछली ग़ज़ल में रदीफ़ "दो" था और इस ग़ज़ल में भी यही रदीफ़ है. दोनों "दो" के अर्थ अलग अलग हैं. बताइयेगा की इस तज़रबे में मैं कितना कामयाब रहा- पेशे-नज़र है ये ग़ज़ल-

ग़ज़ल : कोई हमदम या...............

कोई हमदम या कोई कातिल दो।
मेरी कश्ती को एक साहिल दो.

अब तो तन्हाइयां नहीं कटतीं-
दे रहे हो तो दोस्त-महफ़िल दो।

चांदनी में झुलस रहा है बदन
अब अमावस की रात झिलमिल दो।

उनकी मासूमियत का क्या कहना-?
दिल मिरा ले के कहें- "अब दिल दो."

मुझको बख्शा है ग़र भटकना,
तो-
मेरे पांवों को अब न मंजिल दो।

दोस्ती कर के देख ली मैंने-
एक दुश्मन तो मेरे काबिल दो-!

जिल्लतें, वस्ल, दर्द, तन्हाई-
कुछ तो मेरी वफ़ा का हासिल दो.

होली की अनंत अशेष शुभकामनाएं...........

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

एक ग़ज़ल : "रोक पाएंगीं क्या ........."

रोक पाएंगीं क्या सलाखें दो-?
जब तलक हैं य' मेरी पांखें दो ।

जिसने सबको दवा-ए-दर्द दिया-
आज वो माँगता है- साँसें दो ।

चाह कर भी निकल नहीं सकता-
मुझको घेरे हुए हैं बाँहें दो ।

वो इबादत हो या की पूजा हो-
एक मंजिल है और राहें दो ।

मुझको कोई बचा नहीं पाया-
मेरी कातिल- तुम्हारी आँखें दो ।

या तो आंसू मिलें, या तन्हाई-

एक जुर्म की नहीं सजाएं दो ।

शनिवार, 17 जनवरी 2009

एक ग़ज़ल:इक मुसाफिर ने.....

एक ग़ज़ल प्रस्तुत है-

इक मुसाफिर ने कारवां पाया।

कातिलों को भी मेहरबां पाया.

मेरे किरदार की शफाक़त ने-

हर कदम एक इम्तिहाँ पाया।


जुस्तजू में मिरी वो ताक़त है-

तुझको चाहा जहाँ-वहाँ पाया।


वो जो कहते हैं-मिरे साथ चलो

उनके क़दमों को बेनिशां पाया।


इक सितारा निशात का टूटा-

दर्द में हमने आसमां पाया.

बुधवार, 14 जनवरी 2009

एक ग़ज़ल


सूखते होंठों पे हमको तिश्नगी अच्छी लगी।

जिंदगी जीने की ऐसी बेबसी अच्छी लगी।

इस नुमाइश ने दिखाए हैं सभी रंजो-अलम-

इस नुमाइश की हमें ये तीरगी अच्छी लगी

हैं वसीले और भी, फितरत-बयानी के, लिए

पर हमें नज्मो-ग़ज़ल, ये शाइरी अच्छी लगी।

आलिमों ने इल्म की बातें बताईं हैं बहुत-

पर हकीकत में हमें दो-चार ही अच्छी लगी।

ख्वाहिशें सबकी कभी पूरी नहीं होतीं मगर-

जो तुम्हारे साथ गुज़री, जिंदगी अच्छी लगी।

आज इन हालत में भी हैं मेरे हमराह वो-

कुछ चुनिन्दा लोग- जिनको रोशनी अच्छी लगी।