शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

एक गीत ;"वे संबोधन----"

वे संबोधन याद करो ।
अपने विगत क्षणों से प्रियतम- थोडा तो संवाद करो ।

अधरों ने विस्मृत करने का
बहुत अधिक आयास किया है ।
किंतु तुम्हारी सुधियों के संग
प्राणों ने वनवास किया है ।
स्वर्णपुरी से अब तो अपने स्वप्नों को आज़ाद करो ।
वे संबोधन याद करो ।

कभी गरजते बादल, लगता
जैसे तुमने मुझे पुकारा ।
सूखे पत्तों पर बूंदों का
राही चल-चल कर हारा ।
मेरे आंसू बह जाएंगे उनका नहीं विषाद करो।
वे संबोधन याद करो ।

जलती तप्त धरा जैसा है
मेरा मन उजडा वीराना।
नव-किसलय की कोमलता को
कभी नहीं उसने पहचाना।
अपनी मधुर हंसी से झरने जैसा कल-कल नाद करो ।
वे संबोधन याद करो ।
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