मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

एक ग़ज़ल : गर ज़मीं ........

गर ज़मीं आशियाँ बनाने को-
तो फलक बिजलियाँ गिराने को।

किस तरह से कहें फ़साने को,
हर तरह उज्र है ज़माने को।

हमने चाहा है अश्क मिल जाए-
दर्द अपना कहीं छुपाने को।

उन गुलों को मसल दिया उसने-
जो मिले थे शहर सजाने को।

एक इंसान की ज़रूरत है-
प्यार का दीप फिर जलाने को।

जिसने बारिश की आहटें सुन लीं-
वो ही भागा है घर बचाने को।

कुछ तो उनमें वफ़ा रही होगी-
वो-जो आए हमें मनाने को।

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